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सप्तम अध्याय : प्रहणनीसीत्कार प्रकरण

श्लोक (1)- कलहरूपं सुरतामाचक्षते। विवादात्मकत्वाद्वा मशीलत्वाच्च कामस्थ।।
अर्थ : इसके अन्तर्गत संभोग क्रिया करते समय प्यार को बढ़ाने वाले सुख-कलह को बताया जा रहा है। इसलिए क्योंकि काम स्वभाव से ही विवादास्पद तथा जटिल है।

श्लोक (2)- तस्मात्प्रहणनस्थानमङम्। स्कन्धौ शिरः स्तानातरं पृष्ठं जघनं पार्श्व इति स्थानानि।।
अर्थ : इसी वजह से संभोग क्रिया के समय एक-दूसरे पर प्रहार करना भी संभोग का ही एक अंग माना जाता है। इस प्रहार के लिए दोनों कंधे, दोनों स्तनों के बीच का भाग, पीठ, जांघे, सिर और दोनों बगलें उपयुक्त रहती हैं।

श्लोक (3)- तच्चतुर्विधम-अपहस्तकं प्रसृतकं मुष्टिः समतलकमिति।।
अर्थ- 4 तरह के आघात होते हैं :
अपहस्तक- उल्टी हथेली से थपकी मारना।
प्रसृतक- हाथ फैलाकर मारना।
मुष्टि- मुक्का मारना।
समतल- हथेली से मारना।

श्लोक (4)- तदुद्धवं च सीत्कृतम्। तस्यार्तिरूपत्वात्। तदनेकविधम्।।
अर्थ- सीत्कार :
संभोग क्रिया के समय स्त्री पर प्रहार करने से उसे दर्द तो जरूर होता है लेकिन उस दर्द की वजह से जो आवाज या सिसकी निकलती है उसी को सीत्कार कहा जाता है। सीत्कार कई प्रकार के होते हैं।

श्लोक (5)- विरुतानि चाष्टौ।।
अर्थ : सीत्कार से 8 तरह की अलग-अलग आवाजें निकलती हैं।

श्लोक (6)- हिंकारस्तनितकूजितरुदितसूत्कृतदूत्कृत्फूत्कृतानि।।
अर्थ- 8 तरह की आवाजें :
• हिंकार (हिं हिं की आवाज निकालना)
• स्तनित (हं)
• कूजित (धीरे-धीरे कुकुवाना)
• रुदित (रोने की आवाज निकालना)
• सूत्कृत (सी-सी की आवाज निकालना)

श्लोक (7)- अम्बार्थाः शब्दा वारणार्थ मोक्षणार्थाश्चलमर्थास्ते ते चार्थयोगात्।
अर्थ : उई मां अब बस करो, बहुत हो चुका, मर गई मां, छोड़ दो, धीरे-धीरे करो ना आदि दर्द के शब्द होते हैं।

श्लोक (8)- पारावतपरभूतहारीतशु कमधुकरदात्यूहहंसकारण्डवलावकविरुतानि सीत्कृतभूयिष्ठानि विकल्पशः प्रयीञ्ञीत।।
अर्थ : संभोग क्रिया के समय पुरुष द्वारा प्रहार करने पर सीत्कार करती हुई स्त्री को कोयल, हंस, कबूतर, कारण्डव (बत्तख), गधे आदि की आवाजें बदल-बदलकर निकालनी चाहिए।

श्लोक (9)- उत्सङोपविष्टायाः पृष्ठे मुष्टिना प्रहारः।।
अर्थ : अगर स्त्री पुरुष की गोद में बैठी होती है तो पुरुष को उसकी पीठ पर मुक्कों से प्रहार करना चाहिए।

श्लोक (10)- तत्र सासुयाया इव स्तनितरुदितकूजितानि प्रतिघातश्चस्यात्।।10।।
अर्थ : अपनी पीठ पर मुक्का पड़ते ही स्त्री को असहनशील होकर 'ह' की आवाज निकालकर, 'उसांसें' भरकर तथा लंबी-लंबी सांसें भरकर पुरुष पर उल्टा प्रहार करना चाहिए।

श्लोक (11)- युक्तयन्त्रायाः स्तनान्तरेऽपहस्तकेन प्रहरेत्।।
अर्थ : बिल्कुल सीधी लेटकर संभोग कराती हुई स्त्री के दोनों स्तनों के बीच वाले स्थान पर उल्टी हथेली से प्रहार करना चाहिए।

श्लोक (12)- मन्दोपक्रमं वर्धमानरागमा परिसमाप्तेः।
अर्थ : संभोग क्रिया के समय धीरे-धीरे से मुक्कों से प्रहार करना शुरू कर देना चाहिए और फिर जैसे-जैसे उत्तेजना बढ़ती जाए वैसे ही प्रहारों में भी तेजी लानी चाहिए।

श्लोक (13)- तत्र हिंकारादीनामनियमेनाभ्यासेन विक्लपेन च तत्कालमेव प्रयोगः।।
अर्थ : हिं-हीं, हूं, फुसकारना, हांफना आदि दर्द वाली आवाजें निकालने का न तो कोई नियम होता है और न ही कोई क्रम। संभोग करते समय मुक्का लगने की शुरूआत होने से लेकर आखिरी तक दर्द वाली आवाजें निकालते रहना जरूरी है।

श्लोक (14)- शिरसि किंजिदाकुञ्ञिताङलिना करेण विवदन्तयाः फूत्कृत्य प्रहणनं तत्प्रसृतकम्।।
अर्थ : अगर उल्टी हथेली के प्रहार से स्त्री को सुख नहीं मिलता हो तथा वह कोई और प्रहार चाहती हो तो पुरुष को चाहिए कि वह उत्तेजना के अनुसार धीरे से या जोर से उंगलियों को सांप के फन की तरह बनाकर स्त्री के सिर पर मारने चाहिए। इस तरह के प्रहार को प्रसृतक (खोटका) कहा जाता है।

श्लोक (15)- तत्रान्तर्मुखेन कुजिंत फूत्कृतं च।।
अर्थ : संभोग क्रिया में जिस समय पुरुष स्त्री को मुक्का मारे उस समय कूं कूं सूं सूं फूं फूं आदि आवाजें निकालनी चाहिए।

श्लोक (16)- रतान्ते च श्वसितरुदिते।।
अर्थ : संभोग क्रिया के समाप्त हो जाने के बाद स्त्री जब हांफती है तो उसे रूदन (रोना) कहा जाता है।

श्लोक (17)- वेणोरिव स्फुटतः शब्दानकरणं दुत्कृतम्।।
अर्थ : संभोग क्रिया के समय जब स्त्री के मुख से 'चट-चट' की आवाजें निकालती है। इसे दूत्कृत कहते हैं।

श्लोक (18)- अप्सु बदरस्येव निपततः फूत्कृतम्।।
अर्थ : जिस तरह किसी फल को पानी में गिराने के बाद 'डुब्ब' की आवाज होती है उसी तरह की आवाज जब संभोग करते समय स्त्री के मुंह से निकलती है तो उसे फूत्कृत कहते हैं।

श्लोक (19)- सर्वत्र चुम्बनादिष्वक्रान्तायाः ससीत्कृतं तेनैव प्रत्युत्तरम्।।
अर्थ : पुरुष द्वारा स्त्री के शरीर पर नाखून मारने पर, दांत गढ़ाने पर या चुम्बन आदि करने पर जिस तरह की आवाज स्त्री निकालती है वैसी ही आवाज पुरुष को भी निकालनी चाहिए।

श्लोक (20)- रागवशात्प्रहणनाभ्यासे वारणमोक्षणालमर्थानां शब्दानामम्बार्थानां च सतान्तश्वसितरुदितस्तनितमिश्रीकृतप्रयोगा विरुतानां च। रागावसानलकाले जघनपार्श्वयोस्ताडनमित्यतित्वरया चापरिसमाप्तेः।।
अर्थ : काम-उत्तेजना तेज होने के बाद जब पुरुष बार-बार जोर-जोर से स्त्री पर प्रहार करने लगे तो स्त्री को 'अरीरी', 'अरी मरी', ऊई मां, अब बस भी करो, रहने दो ना, छोड़ दो ना आदि आवाजों को भी हांफने और सिसियाने के साथ निकालते रहना चाहिए।

श्लोक (21)- तत्र लावकहंसविकूजितं त्वरयैव। इति स्तननप्रहणनयोगाः।।
अर्थ : ऐसे समय में स्त्री को हंस और लवा आदि पक्षी की आवाज की नकल करके आवाज निकालते रहना चाहिए।

श्लोक (22)- भवतश्चात्र श्लोकौ-
पारुष्यं रभस्तवं च पौरुषं तेज उच्यते। अशक्तिरार्तिर्व्यावृत्तिरबलत्वं च योषितः।।
अर्थ : इस विषय में 2 श्लोक हैं-
पुरुष के स्वाभाविक गुण धैर्य, सख्ती, बहादुरी और मजबूती होते हैं और कमजोरी, कोमलता, असमर्थता पीड़ित होना स्त्रियों के स्वाभाविक गुण होते हैं। इसी वजह से जब पुरुष स्त्री पर प्रहार करता है तो वह सी-सी की आवाज निकालती रहती है।

श्लोक (23)- रागात्प्रयोगसात्म्याच्च व्यत्ययोऽपि कचिद्धवेत्। न चिरं तस्य चैवान्ते प्रकृतेरेव योजनम्।।
अर्थ : लेकिन यह गुण स्त्री और पुरुष में हमेशा नहीं होते हैं। देश, समय और परिस्थितियों की वजह से दुबारा चरम सीमा तक उत्तेजना के पहुंच जाने पर स्त्री पुरुष की तरह सख्त और ढीठ बनकर उस पर प्रहार करने लगती है तथा पुरुष स्त्री की ही तरह सिसियाता रहता है।

श्लोक (24)- कीलामुरसि कर्तरीं शिरसि विद्धां कपोलयोः संदंशिकां स्तनयोः पार्श्चयोश्चेति पूर्वेः सह प्रहणनमष्टविधमिति दाक्षिणात्यानाम्। तद्युवतीनामुरसि कीलानि च तत्कृतानि दृश्यन्ते। देशसात्म्यमेतत्।
अर्थ : छाती में कीला, गालों में विद्धा, सिर में कर्तरी और स्तन तथा दोनों बगलों में संदशिका और पहले के चार मिलाकर 8 तरह के प्रहणन दक्षिण देश के रहने वालों में प्रचलित हैं।

श्लोक (25)- कष्टमनार्यवृत्तमनादृतमिति वात्स्यायनः।।
अर्थ : वात्स्यायन के अनुसार इस तरह के प्रहारों को अनार्यवृत्त कहते हैं। उनके कहने के अनुसार ऐसा व्यवहार अच्छे लोगों के लिए नहीं है।

श्लोक (26)- तथान्यदपि देशसात्म्यात्प्रयुक्तमन्यत्र न प्रयुञ्जीत्।।26।।
अर्थ : एक देश के रीति-रिवाज सिर्फ उसी देश के लिए लागू होते हैं दूसरे देश के लिए नहीं। इसी वजह से एक जगह की प्रथा को दूसरी जगह प्रयोग नहीं करना चाहिए।

श्लोक (27)- आत्ययिकं तु तत्रापि परिहरेत्।।
अर्थ : संभोग क्रिया के समय ऐसे प्रयोग जिनमें स्त्री के अंग खराब होने के या उसकी मृत्यु हो जाने का डर रहता है उनका प्रयोग वहां पर भी नहीं करना चाहिए जहां उनका रिवाज होता हो।

श्लोक (28)- रतियोगे हि कीलया गणिकां चित्रसेनां चोलराजो जघान।।
अर्थ : इस तरह के प्रहारों के दुष्परिणाम-
चोलदेश के राजा ने चित्रसेना नाम की वेश्या की छाती पर संभोग करते समय ऐसा प्रहार किया था जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

श्लोक (29)- कर्तर्या कुन्तलः शातकर्णिः शातवाहनो महादेवीं मलयवतीम्।।
अर्थ : कुन्तल देश के राजा ने काम-उत्तेजना में आकर राजा शातकर्णि सातवाहन ने महादेवी मलयवती पर प्रहार करके उसे मार डाला।

श्लोक (30)- नरदेवः कुपार्णिर्विद्धया दुष्प्रयुक्तया नटीं काणां चकार।।
अर्थ : पांडव देश के राजा के सेनाध्यक्ष नरदेव ने नाच करने वाली नर्तकी के, अपना हाथ गालों पर मारने के चक्कर में आंख में मार दिया और वह कानी हो गई।

श्लोक (31)- भवन्ति चात्र श्लोकाः-
नास्त्यत्र गणना काचिन्न च शास्त्रपरिग्रहः। प्रवृत्ते रतिसंयोगे राग एवात्र कारणम्।
अर्थ : इस विषय में कुछ पुराने श्लोक प्रचलित हैं-
जिस समय मनुष्य उत्तेजना में भरकर संभोग करने में मग्न हो जाता है तो उस समय न तो वह शास्त्र के वचन के बारे में सोचता है और न ही बाद के परिणामों के बारे में। इस तरह के बुरे परिणामों की एकमात्र कारण सिर्फ उत्तेजना ही है।

श्लोक (32)- स्वप्नेष्वपि न दृश्यन्ते ते भावास्ते च विभ्रमाः। सुरतव्यवहारेषु ये स्युस्तत्क्षणकल्पितः।।
अर्थ : संभोग क्रिया के समय मनुष्य़ का दिमाग भटक जाता है। उस समय उसके दिल में जो भाव पैदा होते हैं वह उसको सपने में भी नहीं दिखाई देते।

श्लोक (33)- यथा हि पञ्ञमीं धारामास्थाय तुरगः पथि। स्थाणुं श्वभ्रं दरीं वापि वेगान्धो न समीक्षते।। एवं सुरतसंमर्दे रागान्धौं कामिनावपि। चण्डवेगौ प्रवर्तेते समीक्षेते न चात्ययम्।।
अर्थ : जिस तरह से कोई घोड़ा तेज गति से भागता है तो उसे अपने बीच में आने वाले गड्ढे, पानी, पेड़ आदि कुछ दिखाई नहीं देते हैं। ऐसे ही उत्तेजना में आकर स्त्री और पुरुष बहुत तेज गति से संभोग करते हुए नाखूनों को गढ़ाने के, दांतों से काटने के या प्रहार करने के कारण होने वाले बुरे परिणामों के बारे में नहीं सोचते हैं।

श्लोक (34)- तस्मान्मृत्वं चण्डत्वं युवत्या बलमेव च। आत्मन्श्च बलं ज्ञात्वा तथा यु़ञ्ञीत शास्त्रवित्।।
अर्थ : इसी तरह स्त्री के शरीर की कोमलता, संभोग की तेजी तथा उसकी सहनशक्ति को समझते हुए और जीवन-शक्ति का अनुमान करके ही पुरुष को संभोग क्रिया में लगना चाहिए।

श्लोक (35)- न सर्वदा न सर्वासु प्रयोगाः सांप्रयोगिकाः। स्थाने देश च काले च योग एषां विधीयते।।
अर्थ : संभोग क्रिया के समय हर क्रिया को हर समय हर किसी स्त्री के साथ नहीं किया जा सकता। जो स्त्री को पसंद हो और जो सभी के हिसाब से सही हो उसी के अनुसार संभोग क्रिया करनी चाहिए।
श्लोक- इति श्रीवात्सायायनीये कामसूत्रे सांप्रयोगिके द्वितीयेऽधिकरने पहणनप्रयोगास्तद्युक्ताश्च सीत्कृतक्रमाः सप्तमोऽध्यायः।
सप्तम अध्याय : प्रहणनीसीत्कार प्रकरण सप्तम अध्याय : प्रहणनीसीत्कार प्रकरण Reviewed by Admin on 11:01 AM Rating: 5

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