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5. नायक सहायदूतकर्म विमर्श प्रकरण

श्लोक (1)- कामश्चतुर्षु वर्णेषु सवर्णतः शास्त्रतश्चानन्यपूर्वायां प्रयुज्यमानः पुत्रीयो यशस्यो लौकिकश्च भवति।।

अर्थ :

इसके अंतर्गत पुरुष तथा स्त्री के दास और दासियों के करने वाले कार्यों को बताया गया है। इसमें सबसे पहले अपनी जाति की स्त्री से रीति-रिवाज के अनुसार विवाह की जरूरत पर रोशनी डाली जाएगी।
क्षत्रिय, ब्राह्मण, शुद्र और वैश्य वर्ग के अनुसार अपनी ही जाति की स्त्री से विवाह करना चाहिए। इससे उनकी जो संतान पैदा होती है वह संसार में उनका नाम रोशन करती है।
आचार्य वात्स्यायन के अनुसार इस बात के दो अर्थ निकलते हैं- पहला- अपनी ही जाति की स्त्री से विवाह करना और दूसरा संतान को पैदा करके लोकधर्म को निभाना।
इसलिए भारतीय जाति व्यवस्था में विवाह पद्धति पर बहुत ही नियंत्रण रखा जाता है। बच्चे के जन्म लेने के बाद के अधिकारों को विकसित और परिपक्व बनाने के लिए पूरी शिक्षा-दीक्षा तथा अच्छे माहौल की जरूरत पड़ती है। लेकिन अगर जन्म से ही उन गुणों को पाने की कोशिश नही की जाती तो खानदानी परंपरा का और परिवार के माहौल का असर बच्चे पर ज्यादा नहीं पड़ता।
आचार्य वात्स्यायन की कही बातें यहां पर बिल्कुल ठीक प्रतीत होती है। अगर अपनी पत्नी से संभोग करके संतान पैदा की जाए तो यह संसार की मर्यादा के अंतर्गत आता है।
श्लोक (2)- तद्विपरीत उत्तमवर्णासु परपरिगृहीतासु च। प्रतिषिद्धोऽवरवर्णास्वनिरवसितासु। वेश्यासु पुनर्भूषु च न शिष्टो न प्रतिषिद्धः। सुखार्थत्वात्।।
अर्थ- इसमें विवाह के समय क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इस बात को बताया गया है-
अपनी से ऊंची जाति या पराई स्त्री से संभोग की इच्छा शास्त्रों के अनुकूल नहीं है। इसी तरह से अपने से नीची जाति की स्त्रियों सें संभोग की इच्छा रखना गलत है। परंतु वेश्याओं तथा पुनर्भु स्त्रियों से संभोग करना सहीं है क्योंकि उनके साथ जो संभोग क्रिया की जाती है वह सिर्फ शरीर की आग को शांत करने के लिए होती है न कि संतान आदि पैदा करने के लिए।
आचार्य वात्स्यायन अपनी ही जाति में विवाह करने का ही समर्थन करते हैं क्योंकि वह दोगली जाति पैदा करने को गलत ठहराते हैं। आज के समय में आधुनिक विज्ञान भी इस बात को मानने लगा है कि दो अलग-अलग जातियों के जीवों के आपस में मिलने से एक तीसरे प्रकार के जीव की उत्पत्ति होती है।
श्लोक (3)- तत्र नायिकास्तिस्त्रः कन्या पुनर्भूर्वेश्या च इति।।
अर्थ- 3 प्रकार की स्त्रियां होती है कन्या, पुनर्भु और वेश्या।
आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक इन तीनों प्रकार की स्त्रियों से पुरुष को प्रेम संबंध जोड़ने चाहिए। पहली स्त्री अर्थात कन्या को सबसे अच्छा माना जाता है। पुनर्भु स्त्री को उससे नीचा और वेश्या स्त्री को सबसे नीचा माना गया है। अब सवाल यह उठता है कि आचार्य वात्स्यायन नें पुनर्भु और वेश्या को कन्या से नीचा क्यों बताया है। जिस लड़की की शादी नहीं होती उसे कन्या कहा जाता है। जो लड़की शादी से पहले किसी पुरुष के साथ संभोग करती है तो उसे पुनर्भु तथा कई पुरूषों के साथ संबंध बनाने वाली स्त्री को वेश्या कहा जाता है।
इससे एक बात पूरी जाहिर हो जाती है कि आचार्य वात्स्यायन के समय में भी कुंवारी युवतियों को भी अपनी पसंद के युवक से विवाह करने की पूरी छूट थी। हर युवक अपनी खूबियों के बल पर युवती को पाने की इच्छा रखता था। आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक विवाह में बंधने से पहले युवक तथा युवती को आपसी प्रेम संबंध द्वारा एक-दूसरे से परिचित हो जाना चाहिए।
जिस युवक में सारे गुण होते हैं ऐसे युवक के लिए कन्या स्त्री उससे नीचे युवक के लिए पुनर्भु तथा सबसे नीचे युवक के लिए वेश्या स्त्री को चुनने का मकसद सही होता है। सबसे पहले आपस में प्रेम बढ़ाना, फिर एक-दूसरे पर भरोसा रखना और फिर विवाह करना आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक सही है।
आचार्य वात्स्यायन ने इसमें युवक की पात्रता के अनुकूल वेश्या नायिका का विधान बनाया है। इसका मतलब यह है कि बुरे युवक के लिए बुरी युवती। इतिहास में वेश्य़ाओं की स्थिति और वह कितनी पुरासे समय से चली आ रही है यह बताया गया है। सभी पुराने ग्रंथों में वेश्याओं के बारे में लिखा हुआ मिलता है। इसी के साथ ही वेश्याओं के संबंध में अलग ग्रंथ भी बने हुए हैं।
वेश्याओं को पुराने समय में समाज का एक जरूरी अंग माना जाता था। पहले के समय में वेश्याओं को इस प्रकार की शिक्षा दी जाती थी कि शारीरिक और मानसिक विकास कैसे होता है। लेकिन दूसरी स्त्रियों को इस प्रकार की शिक्षा से दूर रखा जाता था। पुराने समय से ही वेश्याएं हर चीज में निपुण होती थी। यहीं नहीं ऊंची जाति की स्त्रियां भी इनकी शिक्षा-दीक्षा से लाभ उठाया करती थी।
आचार्यों नें कामसूत्र के अलावा दूसरे ग्रंथों में भी कई प्रकार की स्त्रियों के लक्षण बताए हैं-
1- चित्रिणी
2- परकीया
3- सामान्या
4- स्वकीया
5- पदमिनी
6- हस्तिनी
7- शंखिनी
8- मुग्धा
9- ज्ञातयौवना
10- मध्यमा
11- प्रौढ़ा
12- आरूढ़ यौवना मुग्धा
13- नवलअनंग
14- लज्जाप्रिया मुग्धा
15- लुब्धपत्ति प्रौढ़ा
16- प्रगल्भव चना मध्या
17- आक्रमिता प्रौढ़ा
18- सुरतविचित्रा मध्या
19- विचित्र-विभ्रमा प्रौढ़ा
20- समस्तरत कोवि प्रौढ़ा
21- कलहातरिता
22- धीरा
23- उत्कण्ठिता
24- धीरा-धीरा
25- स्वाधीन पतिका
26- प्रादुर्भतमनोभवा मध्या
27- सम्सयाबन्धु
28- खंडिता
29- स्वयंदूतिका
30- प्रोषितापतिका
31- कुलटा
32- लक्षिता
33- लघुमानवती
34- मुदिता
35- अयुशयना
36- मध्य मानवती
37- अनूढ़ा
38- गुरू मानवती
39- रूपग्रर्विता
40- ग्रर्विता
41- अन्य संभोग दुःखिनी
41- कुलटा
42- कनिष्ठा
43- अदिव्या
44- वचनविदग्धा
45- क्रियाविदिग्धा
46- दिव्या
46- दिव्या दिव्या
47- कामगर्विता
48- मध्यमा
49- उत्तमा
50- प्रेमगर्विता
51- रूपगर्विता
श्लोक (4)- अन्यकारणवशात्परपरिगृहीतापि पाक्षिकी चतुर्थीति गोणिकापुत्रः।।
अर्थ- इसके अंतर्गत बहुत से आचार्यों द्वारा बताई गई स्त्रियों का उल्लेख किया जाता है।
बहुत से कारणों से पराई स्त्री को भी चौथी स्त्री बनाया जा सकता है।
श्लोक (5)- य यदा मन्यते स्वैरिणीयम्।।
अर्थ- जिन कारणों से पराई स्त्रियों को नायिका बनाया जा सकता है वह निम्नलिखित है-
पुरुष जब इस बात को समझ ले कि पराई स्त्री पतिव्रता नहीं होती है।
श्लोक (6)- अन्यतोऽपि बहुशो व्यवसित चारित्रा तस्यां वेश्यायामिव गमनमुत्तमवर्णिन्यामपि न धर्मपीड़ां करिष्यति पुनर्भुरियम्।।
अर्थ- आचार्य स्वैरिणी पराई स्त्री से संबंध बनाने के औचित्य को बताते हैं-
बहुत से लोगों द्वारा उनके चरित्र को पहले से ही खराब किया जा चुका है इसीलिए अगर वह अच्छी जाति की भी हो तब भी उसके साथ संभोग क्रिया करना वेश्या के अभिगमन की तरह धर्म के विरुद्ध नहीं होगा।
श्लोक (7)- अन्यपूर्वावरुद्धा नात्र शगंस्ति।।
अर्थ- वह स्त्री पहले ही दूसरे पुरूषों के साथ नाजायज संबंध बनाती है इसलिए उससे संबंध बनाने में किसी तरह की शंका नहीं करनी चाहिए।
श्लोक (8)- पति वा महान्तीमीश्चरमस्मदमित्रसंसृष्टमियमवगृह्म प्रभुत्वेन चरति। सा मया संसृष्टा स्नेहादेनं व्यावर्तीयिष्यति।।
अर्थ- यदि उस स्त्री का पति नामी-गिरामी हस्तियों में आता है और मेरे दुश्मन से उसका संबंध है तो उस स्त्री से मेरा संबंध हो जाने पर वह मेरे मोह में पड़कर अपने पति का मेरे दुश्मन से संबंध तुड़वा देगी।
श्लोक (9)- विरसं वा मयि शक्तमपकर्तुकामं च प्रकृतिमापादयिष्यति।।
अर्थ- इसका अर्थ यह है कि मेरे पुराने दोस्त जो कि किसी कारण से मेरे दुश्मन बन गए हो और मुझे नुकसान पहुंचा रहे हो तो वह स्त्री उससे मेरी दुबारा से दोस्ती करा देगी और यदि दोस्त न भी बना पाई तो उसके द्वारा मुझे किसी प्रकार की हानि भी नहीं होने देगी।
श्लोक (10)- तया वा मित्रीकृतेन मित्रकार्यममित्रप्रतीघातमन्यद्वा दुष्प्रतिपादकं कार्य साधयिष्यामि।।
अर्थ- अर्थात उससे संबंध बन जाने पर उसके द्वारा दोस्ती या दुश्मनी के कामों को या किसी भी मुश्किल काम को मैं पूरा कर लूंगा।
श्लोक (11)- संसृष्टो वानया हत्वास्याः पतिमस्मद्धाव्यं तदैश्चर्यमेवमधिगमिष्यामि।।
अर्थ- नहीं तो उस स्त्री से मेरे संबंध बन जाने पर उसके पति को मारकर उसके द्वारा छीनी गई मेरी सम्पत्ति को मैं हासिल कर लूंगा।
श्लोक (12)- निरत्ययं वास्या गमनमर्थानुबद्धम्। अहं च निःसारत्वात्क्षीणवृत्त्युपायः। सोऽहमनेनोपायेन तद्धनमतिमहदकृच्छ्रादधिगमिष्यामि।।
अर्थ- धन के लालच में पराई स्त्री के साथ शारीरिक संबंध बनाना कोई बुरी बात नहीं है क्योंकि मैं गरीब हूं, मेरे पास कमाई का कोई साधन नहीं है। इसलिए मैं इस उपाय से उस स्त्री के धन को बहुत ही आसानी से हासिल कर लूंगा।
श्लोक (13)- मर्मज्ञा वा मयि ढृढमभिकामा सा मामनिच्छन्तं दोषविख्यापनेन दूषियिष्यति।।
अर्थ- या वह मुझ पर पूरी तरह से मोहित है, मेरे राजों को जानती है, अगर मैं उससे सही तरह से बात न करूं तो वह मेरी बुराईयों को सबको बताकर मुझ बदनाम कर सकती है इसलिए मेरे लिए यह ही सही है कि मै उसके साथ संबंध बना लूं।
श्लोक (14)- असद्धूतं वा दोषं श्रद्धेयं दुष्परिहारं मयि क्षेप्सयति येन में विनाशः स्यात्।।
अर्थ- या मुझसे खफा होकर वह मुझ पर कोई ऐसा संगीन आरोप लगा दें कि मुझे उससे बचना मुश्किल ही हो जाए तब तो मेरा सर्वनाश ही हो जाएगा। इसलिए उसके साथ संबंध बनाना ही मेरे लिए सही है।
श्लोक (15)- आयतिमन्तं वा वश्यं पतिं मत्तो विभिद्य द्विषतः संग्राहयिष्यति।।
अर्थ- या वह अपने प्रभावशाली पति को मेरे खिलाफ भड़काकर मेरे दुश्मनों के साथ मिला देगी। इसलिए उसके साथ संबंध बनाना ही सही है।
श्लोक (16)- स्वयं वा तैः सह संसृज्येत। मदवरोधानां वा दूषियाता पतिरस्यास्तदस्याहमपि दारानेव दूषयन्तप्रतिकरिष्यामि।।
अर्थ- या तो वह स्वयं ही मेरे दुश्मनों के साथ मिल जाए या उसका पति मेरी पत्नी को यह सोचकर फंसाना चाहे कि इसने मेरी पत्नी के साथ गलत संबंध बनाए हैं तो मैं भी इसकी पत्नी के साथ ऐसा ही करूंगा। इसलिए इसके साथ संबंध बनाना ही उचित है।
श्लोक (17)- यामन्यां कामयिष्ये सास्या वशगा। तामनेन संक्रमेणाधिगमिष्यामि।।
अर्थ- या जिस दूसरी स्त्री को मैं चाहता हूं वह उसके वश में हूं और इसकी वजह से मै उसे हासिल कर लूंगा।
श्लोक (18)- कन्यामलभ्यां वात्माधीनामर्थरूपवतीं मयि संक्रामयिष्यति।।
अर्थ- या फिर जिस धनवान, खूबसूरत युवती से मैं शादी करना चाहता हूं वह मुझे बिना इसकी सहायता के नहीं मिल सकती।
श्लोक (19)- इति साहसिक्यं न केवलं रागादेव। इति परपरिग्रहगमनकारणानि।।
अर्थ- किसी खास कारण के बिना सिर्फ स्त्री के शरीर को पाने के लिए इतने ज्यादा खतरे उठाना बिल्कुल ठीक नहीं है। यहां पर पराई स्त्री के साथ संबंध बनाने का अध्याय समाप्त होता है।
श्लोक (20)- एतैरेव कारणैर्महामात्रसंबद्धा राजसंबंद्धा वा तत्रैकदेशचारिणी काचिदन्या वा कार्यसंपादिनी विधवा पञ्ञमीति चारायणः।।
अर्थ- आचार्य चारायण के अनुसार कन्या, पुनर्भु, वेश्या और पराई स्त्री के अलावा विधवा पांचवीं नायिका है जो राजा, मंत्री और उनके घरवालों के संबंध बना लें या दूसरी कोई ऐसी विधवा स्त्री है जो सफलतापूर्वक अपने सारे कार्यों को कर सके।
श्लोक (21)- सैव प्रव्रजिता षष्ठीति सुवर्णनाभः।।
अर्थ- आचार्य सुवर्णनाभ के मुताबिक परिवाजिका विधवा छठे प्रकार की नायिका होती है।
श्लोक (22)- गणिकाया दुहिता परिचारिका वानन्यपूर्वा सप्तमीति घोयकमुखः
अर्थ- आचार्य घोटकमुख दासी को सातवें प्रकार की स्त्री बताते हैं।
श्लोक (23)- उत्क्रान्तबालभवा कुलयुवतिरुपचारान्यत्वादष्टमीति गोनर्दीयः।।
अर्थ- आचार्य गोनर्दीय के मुताबिक जो युवती बचपन को पार करके जवानी में पहुंचती है और जिसे पाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है वह आठवें प्रकार की नायिका होती है।
श्लोक (23)- कार्यान्तराभावादेतासामपि पूर्वास्वेवोपलक्षणम्, तस्माच्चतस्त्र एव नायिका इति वात्स्यायनः।।
अर्थ- चारायण से लेकर गोनर्दीय तक जिन आचार्यों नें 4 तरह की नायिकाओं के बारे में बताया है वह सब कन्या, पुनर्भू, वेश्या तथा पराई स्त्री के अन्तर्गत समाहित है उनके अलग नहीं है। इसलिए सिर्फ 4 प्रकार की नायिकाएं है।
आचार्य वात्स्यायन ने गोणिकापुत्र के दिए हुए मत को स्वीकार करके बाकी दूसरे आचार्यों को बहुत ही चतुराई से गलत साबित कर दिया है।
श्लोक (24)- भिन्नत्वात्तृतीया प्रकृतिः पञ्ञमीत्येके।।
अर्थ- आचार्यों के अनुसार पुरुष तथा स्त्री से अलग तीसरे प्रकृति अर्थात (किन्नर) पांचवीं नायिका है।
इस तीसरी प्रकृति (किन्नर) को पोटा, क्लीव, नपुंसक, वर्षधर, षण्व, उभय-व्यंजन आदि के नामों से भी जाना जाता है। वैसे नपुंसक और हिजड़ों में काफी फर्क होता है।
लिंग में पूरी उत्तेजना न होने और वीर्य के पर्याप्त मात्रा में न होने के कारण जो पुरुष स्त्री के साथ संभोग करने में असमर्थ रहता है उसे नपुंसक कहा जाता है। कुछ पुरुष जन्म से ही नपुंसक होते है और कुछ अपनी जवानी की गलतियों के कारण हो जाते हैं। नपुंसक को क्लीव भी कहा जाता है।
श्लोक (25)- एक एव तु सार्वलौकिको नायकः। प्रच्छन्नस्तु द्वितीयः। विशेषालाभात्। उत्तमाधममध्यमतां तु गुणागुणतो विद्यात्। तांस्तुभयोरपि गुणागुणान्वैशिकै वक्ष्यामः।।
अर्थ- इसमें नायिकाओं के लक्षण बताने के बाद पुरुष के लक्षण बताए गए है-
स्त्री के जीवन में सबसे बढ़कर जो पुरुष होता है वह उसके पति के रूप में ही होता है। इसके अलावा दूसरा पुरुष उसे कहा जाता है जो सिर्फ शारीरिक सुख के लिए उसके साथ संबंध बनाता है। इनमें से गुण तथा दोषों के ज्यादा या कम होने के अनुसार सबसे अच्छे, मध्यम और नीच पुरुष कहलाते हैं।
श्लोक (26)- अगम्यास्तवेवैताः- कुष्ठन्युन्मत्ता पतिता भिन्नरहस्या प्रकाशप्रार्थिनी गतप्राययौर्वनातिश्वेतातिकृष्णा दुर्गन्धा संबन्धिनी सखी प्रव्रजिता संबंन्धिसखिश्रोत्रियराजदाराश्च।।
अर्थ- इसके अंतर्गत 13 तरह की अगम्या स्त्रियों (जिन स्त्रियों के साथ संभोग नहीं किया जा सकता) के बारे में बताया गया है यह स्त्रियां है- पागल, कोढ़िन, बेशर्म, ज्यादा उम्र की, शरीर से बदबू आने वाली, किसी तरह के रिश्ते में लगती हो, ज्यादा सफेद रंग की या ज्यादा काली रंग की, बचपन की सहेली, जो किसी राज को न छुपा पाती हो, सन्यासिनी।
श्लोक (27)- दृष्टपञ्ञपुरुषा नागम्या काचिदस्तीति बाभ्रवीयाः।।
अर्थ- बाभ्रवीय आचार्यों के मुताबिक अगर कोई स्त्री 5 पुरूषों के साथ संबंध बनाती है तो वह अगम्या स्त्री नहीं है।
श्लोक (28)- संबंधिसखिश्रोत्रियराजदारवर्जमिति गोणिकापुत्रः।।
अर्थ- बाभ्रवीय आचार्य के मत में आचार्य गोणिकापुत्र ने अपना एक मत और जोड़कर उसका समर्थन करते हैं- 5 पुरूषों के साथ संबंध बनाने के बाद भी रिश्तेदार, मित्र, ब्राह्मण और राजा की स्त्री अगम्य है।
आचार्य वात्स्यायन ने जिस तरह की 13 स्त्रियों के नाम बताए हैं वह धार्मिक, सामाजिक, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से सबसे ज्यादा निषिद्ध है। शरीर विज्ञान तथा वंशानुक्रम-विज्ञान से अगर देखा जाए तो पागल, कोढ़िन, शरीर से बदबू आने वाली, ज्यादा काली युवती या ज्यादा गोरी लड़की से संभोग करना भयंकर तथा वंश परंपरागत विकारों को जानबूझकर बुलावा देना है। ज्यादा उम्र की स्त्री के साथ संभोग करना दिल और दिमाग तथा शरीर को नुकसान पहुंचाना ही होता है।
इसके साथ बड़ी कोशिश से रक्षा करने लायक, वीर्य का नाश करने के समान ही है। अगर धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो अपने कुल या गौत्र की स्त्री, दोस्त की पत्नी, राजा की पत्नी तथा सन्यासिनी के साथ संभोग करना जानवर पंती समझी जाती है अर्थात जो पुरुष ऐसा करता है वह मनुष्य न कहलाकर जानवर कहलाने के लायक ही है।
श्लोक (29)- सहपांसुक्रीडितमुपकारसंबंद्धं समानशीलव्यसनं सहाध्यायिनं यश्चास्य मर्माणि रहस्यानि य विद्यात्, यस्य चायं विद्याद्वा धात्रपत्यं सहसंवृद्ध मित्रम्।।
अर्थ- इसमें यह बताया गया है कि कैसे लोगों को अपना प्रिय मित्र बनाना चाहिए जैसे बचपन में जिनके साथ पूरे दिन खेलते हों, जिस पर किसी तरह का एहसान किया हो, स्वभाव या गुण आदि में जो बिल्कुल अपनी ही तरह हो, जिससे किसी तरह के राज को ना छुपाया गया हो और जो एक ही मां की गोद में खेलकर पले-बढ़े हों।
श्लोक (30)- पितृपैतामहमविसंवादकमद्दष्टवैकृतं वश्यं ध्रुवमलोभशीलमपरिहार्यममन्त्रविस्त्रावीति मित्रन्संपत्।।
अर्थ- जिससे खानदानी प्यार-दुलार चला रहा हो, जिन लोगों से लड़ाई-झगड़ा न होता हो, जो स्वभाव से चंचल न हो, लालची न हो, किसी के बहकावे में न आए और किसी के द्वारा बताई गई बातों को दूसरों के सामने न खोले। इस प्रकार के लोगों के साथ दोस्ती रखनी चाहिए।
श्लोक (31)- राजकनापितमालाकारगान्धिकसौरिकभिक्षुकगोपाल कताम्बूलिकसौवर्णिकपीठमर्दविटविदूषकादयो मित्राणि। तद्योषिन्मित्राश्च नागरकाः स्युरिति वात्स्यायनः।।
अर्थ- इनके अलावा कुछ कारोबार से संबंध रखने वाले लोग भी नायक के दोस्तों में शामिल हो सकते हैं जैसे धोबी, नाई, माली, भिखारी, दूध वाला, तमोली, सुनार आदि। आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक धोबी, नाई, माली आदि की पत्नियों को भी दोस्त बनाया जा सकता है क्योंकि यह पुरूषों से ज्यादा नायक की ज्यादा मदद कर सकती है। क्योंकि इनका संबंध महल में रहने वाली रानियों से होता है और यह किसी भी समय उनके महल में आ जा सकती है।
श्लोक (32)- यादुभयोः साधारणमुभयत्रोदारं विशेषतो नायिकायाः सुविस्त्रब्धं तत्र दूतकर्म।।
अर्थ- जो लोग स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही मन में अच्छी भावना रखते हो खास करके स्त्री का ज्यादा विश्वास पात्र हो वह दूतकार्य के लिए बिल्कुल ठीक रहता है।
श्लोक (33)- पटुता धष्टार्यमिगिंताकारज्ञता प्रतारणकालज्ञता विषह्यबुद्धित्वं लध्वी प्रतिपत्तिः सोपाया चेति दूतगाणाः।।
अर्थ- बातचीत में चतुराई, ढीटपना, इशारों को समझना, नायिका को किस समय बहकाया जा सकता है, इसका काल ज्ञान, संकट अथवा शक महसूस होने पर जल्द ही फैसला लेने वाली आदि दूत के गुणों में शुमार होते हैं।
श्लोक (34)- भवति चात्र श्लोकः-
आत्मवान्मित्रवान्युक्तो भावज्ञो देशकालवित्। अलभ्यामप्ययत्नेन स्त्रियं संसाधयेन्नरः।।
अर्थ- इस विषय के बारें में एक पुराना श्लोक है-
जो पुरुष आत्मनिर्भर तथा दोस्त बनाने वाले गुणों से संपन्न होता है, जो वृत्त में निपुण होता है, स्त्रियों के मन के भावों को परखने वाला होता है, स्थान और समय के महत्व को समझता है, वही अलभ्य स्त्री को भी बहुत आसानी से पा लेता है।
इस अध्याय का नाम दूतीकर्म विशेष है लेकिन दूतीकर्म से ज्यादा इसमे दूतकर्म का ही ज्यादा इस्तेमाल किया गया है। नायिका को नायक से मिलाने में दूती जितनी ज्यादा मदद कर सकती है उतनी दूत नहीं कर सकता। आचार्य वात्स्यायन ने वैसे तो दूसरे काम-शास्त्र के आचार्यों की राय को सही बताते हुए दूतकर्म का कार्य करने वाले पुरूषों की पत्नियों को भी दूतीकार्य में सहयोग करने की राय दी है, लेकिन वह सारी बातें समीचीन इसलिए नहीं जान पड़ती कि जितने प्रकार के दूत बताए गए हैं उन सभी की पत्नियां दूतीकार्य के लिए सही नहीं रहती। पुराने इतिहास में स्त्री और पुरुष के बारे में प्रेम के बारे में पढ़ने पर ज्ञात होता है कि स्त्री और पुरुष के बीज क्लेश पैदा कराने वाले कार्यों में स्त्रियां ही ज्यादा सफल साबित हुई है पुरुष दूत नहीं।
इस अध्याय को जो नाम दिया गया है उसके अनुसार इस विषय का विवेचन न के बराबर हुआ है। विषयांतर का समावेश समीक्षक दिमाग में उलझने पैदा करता है। इस अध्याय में दूतीकार्य को छुआ तक नहीं गया है बल्कि इसके मुकाबले दूसरे ग्रंथों में इस विषय के बारें में पूरी जानकारी मिलती है।
आचार्य वात्स्यायन ने एक पुराने श्लोक को उदाहरण के रूप में बताते हुए कहा है कि जिस पुरुष के पास आत्मबल और बहुत सारे भरोसेमंद मित्र होते हैं और वह नागरकवृत्ति में निपुण तथा मन के भावों को समझने वाला होता है। वह अनायास, अलभ्य स्त्रियों को हासिल कर सकता है।
इस अध्याय के अंतर्गत नायक पुरुष के जो गुण और विशेषताएं बताई गई है वह सिर्फ अलम्भ स्त्रियों को हासिल करने में ही कामयाबी नहीं दिलाती बल्कि जीवन के हर क्षेत्र और काम-काज में पूरी तरह से कामयाब बनाती है।
जो पुरुष कायर नहीं होता उसी को आत्मवान कह सकते हैं। जिसका दिल साफ होता है वही सच्चा मित्र बन सकता है। मन के भावों को समझने वाला वही व्यक्ति हो सकता है जिसके अंदर समीक्षात्मक दिमाग तथा मनौवैज्ञानिक नजरिया हो और व्यवहारकुशल व्यक्ति ही देशकालवित हो सकता है।
इस श्लोक से यही पता चलता है कि काम-शास्त्र का ज्ञाता पुरुष छिछोरा, लफंगा और मनचला नहीं होता बल्कि कुलीन, समझदार, लोकप्रिय, स्वाभिमानी, आत्मनिष्ठ और कलाकुशल होता है।
श्लोक- इति श्री वात्सयायनीये कामसूत्रे साधारणे प्रथमेऽधिकलणे पंचमोऽध्यायः प्रथम अधिकरण (साधारण) समाप्त।
5. नायक सहायदूतकर्म विमर्श प्रकरण 5. नायक सहायदूतकर्म विमर्श प्रकरण Reviewed by Admin on 5:23 PM Rating: 5

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