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द्वितीय अध्याय : परिचयकारण प्रकरण

श्लोक (1)- यथा कन्या स्वयमभियोगसाध्या न तथा दूत्या। परस्त्रियस्तु सूक्ष्मभावा दूतीसाध्या न तथात्मनेतयाचार्याः।


अर्थ- कामशास्त्र के पुराने आचार्यों के मुताबिक जिस तरह से कुंवारी युवती को अपने उपायों आदि से पाया जा सकता है उसी तरह पराई स्त्रियों को बिना दूती की सहायता से स्वयं पाना मुमकिन नहीं है।

श्लोक (2)- सर्वत्र शक्तिविषये स्वयं साधनमुपपत्रतरकं दुरुपपादत्वात्तस्य दूतीप्रयोग इति वात्स्यायनः।।

अर्थ- आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक स्वयं अपने बल पर स्त्री को पाना दूती की मदद लेने से ज्यादा अच्छा है। अगर स्वयं की कोशिश कामयाब नहीं हो पाती तो दूती की मदद ली जा सकती है।

श्लोक (3)- प्रथमसाहसा अनियन्त्रणसंभाषाश्च स्वयं प्रतार्याः। तद्विपरीताश्च दूत्येति प्रायोवादः।।

अर्थ- जिस स्त्री का चरित्र पहली बार खराब हुआ हो उसे पाने में पुरुष ही समर्थ होता है दूती नहीं। कभी हासिल करने वाली स्त्री से बात न हुई हो, उससे मिलना किसी भी तरह से पुरुष के वश में न हो तो फिर दूती का ही सहारा लेना पड़ता है।

श्लोक (4)- स्वयमभियोक्ष्यमाणस्त्वादावेव परिचयं कुर्यात्।।

अर्थ- अगर पुरुष खुद स्त्री को पाने के उपाय करना चाहता है तो उसे पहले उससे मेलजोल और दोस्ती आदि बढ़ाना चाहिए।

श्लोक (5)- तस्याः स्वाभाविकं दर्शनं प्रायत्निकं च।।

अर्थ- अगर बिना किसी कोशिश के स्त्री को देखा जाए तो उसे स्वभाविक कहते हैं और अगर उसे किसी उपाय आदि से देखा जाए तो उसे प्रायत्निक कहते हैं।

श्लोक (6)- स्वाबाविकमात्मनो भवनसंनिकर्षे प्रायत्निकं मित्रज्ञातिमहामात्रवैद्यभवनसंनिकर्षे विवाहयज्ञोत्सवव्यसनोद्यानगमनादिषु।।

अर्थ- स्त्री को अपने घर के पास आते-जाते देखना और स्वाभाविक और दोस्त, मंत्री या डाक्टर के घर के पास या विवाह, यज्ञ, उत्सव, विपत्ति, के मौके पर देखना प्रायत्निक दर्शन है।

श्लोक (7)- दर्शने चास्याः सततं साकारं प्रेक्षणं केशसंयमनं नखाच्छुरमणमाभरणप्रह्लादनमधरौष्ठविमर्दनं तास्ताश्च लीला वयस्यैः सह प्रेक्षमाणायास्तत्संबद्धाः परापदेशिन्यश्च कथास्त्यागोपभोगप्रकाशनं सख्युरुत्संगनिषण्णस्य सागंभंगजुम्भणमेकभ्रूक्षेपणं मन्दवाक्यता तद्वाक्यश्रवणं तामुद्दिश्य बालेनान्यजनेन वा सहान्योपदिष्टा द्वयर्था कथा तस्यां स्वयं मनोरथावेदनमन्यापदेशेन तामेवोद्दिश्य बालचुम्बनमालिंगनंचजिह्वया चास्य ताम्बूदानं प्रदेशिन्या हनुदेशगट्टनं तत्तद्यथायोगं यथावकाशं च प्रयोक्तव्यम्।।

अर्थ- स्त्री का भावदर्शन इस तरह करना चाहिए- जब वह अपने बालों को खोलकर सुखा रही हो, नाखूनों से खुजला रही हो, अपने गहनों को ठीक कर रही हो, अपने नीचे वाले होंठों को चबा रही हो, तब अपने दोस्तों के साथ स्त्री के उन भावों की नकल करने का नाटक करना चाहिए। दूसरे लोगों के बहाने उसकी बातें करनी चाहिए, अपने त्याग तथा भोग-विलासों के बारे में बातें करनी चाहिए, दोस्त की गोद में लेटकर अंगड़ाई लेनी चाहिए, जम्भाई लेते हुए उसकी तरफ भौंहों को मटकाना चाहिए, धीरे से बोलना चाहिए तथा उसकी बातें सुनना चाहिए।

श्लोक (8)- तस्याश्चागंतस्य बालस्य लालनं बालक्रीडनकानां चास्य दानं ग्रहणं तेन सनिकृष्टत्वात्कथायोजनं तत्संभाषणक्षमेण जनेन च प्रीतिमासाद्य कार्यं तदनुबन्धं च गमनागमनस्य योजनं संश्रये चास्यास्तामपश्यतो नाम कामसूत्रसंकथा।।

अर्थ- स्त्री के गोद में लिए हुए बच्चे को प्यार करना चाहिए तथा उसे खेलने के लिए खिलौने देने चाहिए। उसके पास जाकर उससे बात करनी चाहिए। जो आदमी उससे बात करता हो उससे दोस्ती कर लेनी चाहिए तथा उसके द्वारा अपना मकसद हल कर लेना चाहिए। किसी भी काम के बहाने उसके घर पर आना-जाना शुरू कर देना चाहिए। उसको ऐसे स्थान पर कामसूत्र के बारे में बातें करनी चाहिए कि जहां से स्त्री उसकी बातों को सुन तो सके लेकिन यह न जान सके कि वह उसको देखकर ऐसी बाते बोल रहा है।

श्लोक (9)- प्रसृते तु परिचये तस्या हस्ते न्यासं रिक्षेपं च निदध्यात्। तत्प्रतिदिनं प्रतिक्षणं चैकदेशतो गृह्वीयात्। सौगन्धिक पूलफलानि च।।

अर्थ- उससे अच्छी तरह से जान-पहचान होने के बाद उसे ऐसी चीजें देनी चाहिए जो उसके पास कुछ दिन तक रखी रहें। इसके बाद उससे वह चीज लेकर उसको दुबारा ऐसी चीजें रखने के लिए दें जो कि उसके पास ज्यादा दिनों तक रखी रहे। उससे प्यार, भरोसा और जान-पहचान बढ़ाने के लिए रोजाना सामान को लेने-देने का क्रम जारी रखें जैसे इत्र, सुपारी, बाल बनाने के लिए कंघा आदि। ऐसी चीजों को उपयोग करने के लिए रोजाना मांगा जा सकता है।

श्लोक (10)- तामात्मनो दारैः सह विस्त्रम्भगोष्ठयां विविक्तासने च योजयेत्।।

अर्थ- उसे अपने घर की स्त्रियों के साथ बातचीत या भोजन आदि करने में लगा देना चाहिए।

श्लोक (11)- नित्यदर्शनार्थ विश्वासनार्थ च।।

अर्थ- इस प्रकार की कोशिशों को करते रहना चाहिए जिससे वह रोजाना दिखती रहे और उसका प्रेम और भरोसा भी बढ़ते जाए।

श्लोक (12)- सुवर्णकारमणिकारवैकटिकनीलीकुसुम्भरञ्ञकादिषु च कामार्थिन्यां सहात्मनो वश्यैश्चैषां तत्सम्पादने स्वयं प्रयतेत।।

अर्थ- सुनार, जड़िया, न्यारिया, नीलगर, रंगरेज, बढ़ई आदि से अगर स्त्री कोई काम कराने जाती है तो पुरुष को उससे कहकर कि मै आपका यह काम करवा दूंगा कहकर उसे घर पर भेज देना चाहिए।

श्लोक (13)- तदनुष्ठाननिरतस्य लोकविदितो दीर्घकालं संदर्शनयोगः।।

अर्थ- इस तरह से स्त्री का काम करते हुए पुरुष को लोग-बाग बहुत ही देर से समझ पाते हैं।

श्लोक (14)- तस्मिश्चान्येषामपि कर्मणामनुसन्धानम्।।

अर्थ- एक काम को समाप्त किए बिना ही पुरुष को दूसरा काम शुरु कर देना चाहिए।

श्लोक (15)- येनकर्मणा द्रव्येण कौशलेन चार्थिनी स्यात्तस्य प्रयोगमुत्पत्तिमागममुपायं विज्ञानं चात्मायत्तं दर्शयेत्।।

अर्थ- स्त्री को जिन-जिन कामों की जरूरत हो, जिन चीजों को वह पसंद करती हो, जिस काम आदि को वह सीखना चाहती हो, उनको पूरा करने, जानने तथा जानकारी रखने और कोशिश करने की अपनी योग्यता उससे जाहिर कर देना चाहिए।

श्लोक (16)- पूर्वप्रवृत्तेषु लोकचरितेषु द्रव्यगुणपरीक्षासु च तया तत्परिजनेन च सह विवादः।।

अर्थ- पुराने रीति-रिवाजों, वस्तुओं के गुणों की पहचान में उससे और उसके नौकरों से बहस करने से संकोच दूर होता है।

श्लोक (17)- कृतपरिचयां दर्शितेगिंताकारां कन्यामिवोपायतोऽभियुञ्ञीतेति। प्रायेण तत्र सूक्ष्मा अभियोगाः। कन्यानामसंप्रयुक्तत्वात्। इतरासु तानेव स्फुटमुपदध्यात्। संप्रयुक्तत्वात्।।

अर्थ- अभियोग प्रकरण-

जिस स्त्री से जान-पहचान कर ली हो, जिसने संकेत तथा हाव-भाव दिखा दिए हो उसको उसी तरह से अपनाना चाहिए जैसा कि कन्या को पाने के अध्याय में बताया गया था।

श्लोक (19)- संदर्शिताकारायां निर्भिन्नसद्धावायां समुपभोगव्यतिकरे तदीयान्युपयुञ्ञीत।।

अर्थ- जिस स्त्री ने अपने शरीर के अंगों को दिखा दिया हो, जिसने सदभाव जाहिर कर लिया हो, उसकी चीजों को उसके प्रेमी को भोगना चाहिए तथा प्रेमी की चीजों को स्त्री को उपभोग करना चाहिए।

श्लोक (20)- तत्र महार्हगंधमुत्तरीयं कुसुमं स्यादंगलीयकं च। तद्धस्ताद-गृहीतताम्बूलया गोष्ठीगमनोद्यतस्य केशहस्तपुष्पयाचनम्।।

अर्थ- एक-दूसरे को चीजे लेने-देने की शुरुआत होने पर अगर स्त्री पुरुष को ज्यादा सुगंधित चीजें, अंगूठी, दुपट्टा और फूल देती है तथा जब वह अपने हाथ में रखा हुआ पान खा ले तो घूमने जाने की तैयारी करते समय उसके जूड़े में लगे हुए सुगंधित फूल मांगे।

श्लोक (21)- तत्र महार्हगंध स्पृणीयं स्वनखदशनपदचिह्नितं साकारं दद्यात्।।

अर्थ- इसके बदले में स्त्री अगर कोई सुगंधित या मनचाही चीज पुरुष को देती है तो उसे नाखून से उस पर निशान बना देना चाहिए।

श्लोक (22)- क्रमेण च विविक्तदेशे गमनमालिंगनं चुंबन ताम्बूलस्य ग्राहणं दानान्ते द्रव्याणां परिवर्तनं गुह्यदेशाभिमर्शनं चेत्यभियोगाः।।

अर्थ- पुरुष और स्त्री को धीरे-धीरे एकांत में मिलना-जुलना चाहिए, आलिंगन और चुंबन आदि करना चाहिए, उसके गुप्त अंगों को छूना चाहिए। इसी को अभियोग कहते हैं।

श्लोक (23)- यत्र चैकाभियुक्ता न तत्रापरामभियुञ्ञीत।।

अर्थ- जहां पहले किसी और स्त्री से मिल चुके हो वह उस स्त्री को मिलने के लिए नहीं बुलाना चाहिए।

श्लोक (24)- श्लोवत्र भवतः-

अन्यत्र दृष्टसंचारस्तद्धर्ता यत्र नायकः। न तत्र योषितं कांचित्सुप्रापामणि लंगयेत्।।

अर्थ- इस विषय के बारे में 2 पुराने श्लोक हैं- जिस घर में स्त्री के पति को उसके नाजायज संबंधों के बारे में पता हो, वहां पर आसानी से मिलने वाली स्त्री से मिलना भी ठीक नहीं है।

श्लोक (25)- शंगितां रक्षितां भीतां सश्वश्रूकां च योषितम्। न तर्कयेत मेधावी जानन्प्रययमात्मनः।।

अर्थ- मजबूत दिल वाली, डरपोक, भरे-पूरे घर वाली स्त्रियों को आत्मविश्वास लोगों को भूलकर भी नहीं पटाना चाहिए।

 
द्वितीय अध्याय : परिचयकारण प्रकरण द्वितीय अध्याय : परिचयकारण प्रकरण Reviewed by Admin on 10:44 AM Rating: 5

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