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रसिकजन के कार्य

श्लोक-1. गृहीतविद्यः प्रतिग्रहजयक्रयर्निशाधिगतैरर्थैरन्वयागतैरुभयैर्वा गार्हस्थ्यमधिगम्य नागरकमवृत्तं वर्तेत।।1।।
अर्थ- विद्या अध्ययन के समय ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। इसके बाद पैतृक संपत्ति या दान, विजय, व्यापार और श्रम आदि द्वारा धन एकत्र करके विवाह करके गृह प्रवेश करना चाहिए। इसके बाद सामान्य नागरिकों की तरह जीवन व्यतीत करना चाहिए।
व्याख्या- कामसूत्र तथा उसकी अंगभूत विद्याएं ही विद्या प्राप्त करने का मुख्य अर्थ हैं। आचार्य़ वात्स्यायन के अनुसार अपहरण बलात्कार द्वारा स्त्री को प्राप्त करने की कोशिश अव्यवहारिक तथा असामाजिक है। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए कामशास्त्र तथा 64 कलाओं का अध्ययन करने के बाद ही ग्रहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए।
विवाह करने के बाद घर चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है जिसके लिए उचित उपाय करने चाहिए। इसीलिए वात्स्यायन ने स्वयं कहा है कि कामसूत्र और 64 कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही अपनी कुशलता और श्रम के द्वारा धन कमायें। धन कमाने के बाद ही विवाह करें। इसके अलावा पैतृक संपत्ति का प्रयोग भी कर सकते हैं। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के बाद सभ्य लोगों के समान जीवनयापन करें।
श्लोक-2. नगरे पत्तने खर्वटे महित वा सज्जनाश्रये स्थानम्। यात्रावशाद्वा।।2।।
अर्थ- विवाह करने के बाद नागरिकों को नगर में, खर्वट में, पत्तन में या महत में सभ्य लोगों के बीच निवास करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जीवन चलाने के लिए परदेश में रह सकते हैं।
श्लोक-3. तत्र भवनमासत्रोदकं वृक्षवाटिकावद्विभक्तकर्मकक्षं द्विवास-गृहं कारयेत्।।3।।
अर्थ- वहां जल के निकट वृक्षवाटिका के पास घर का निर्माण करें जिसमें रहने के लिए दो वासस्थान रखना चाहिए। एक बहि प्रकोष्ठ, दूसरा अंतः प्रकोष्ठ।
आचार्य वात्स्यायन नागरिकों को ऐसे स्थान पर रहने की सलाह देते हैं जहां पर जीवन संबंधी सभी उपयोगी साधन उपलब्ध हो। इस प्रकार की सुविधा पत्तन (राजधानी) में, नगरों (महतीपुरी) में, खर्वट (तहसील) में तथा महत अर्थात जिले के केन्द्रों में आसानी से उपलब्ध होते हैं।
इन साधनों में जहां पर दैनिक उपयोग और उपभोग की चीजें उपेक्षित हैं। वहीं लोगों को इससे अधिक प्राकृतिक सौंदर्य की अपेक्षा होती है। इसलिए लोग घरों का निर्माण प्रकृति के आस-पास करवाते हैं।
श्लोक-4. बाह्ये च वासगृहे सुश्रलक्ष्णमुभयोपधानं मध्ये विनतं शुक्लोत्तरच्छदं शयनीयं स्यात। प्रतिशय्यिका च। तस्य शिरोभागे कूर्चस्थानम् वेदिका च। तत्र रात्रिशेषमनलेपनं माल्यं सिक्थ करण्डकं सौगन्धिकपुटिका मातुलुड़गत्वचस्ताम्बूलाहनि च स्यूः। भृमौ पतद्ग्रहः नागदंतावसक्ता वीणा। चित्रफलकम्। वर्तिकासमुद्रकः। य कश्चतपुस्तकः कुरण्टकामालाश्च नातिदूरे भूमौ वृत्तास्तरणं समस्तकम्। आकर्षकफलकं द्यूतफलकं च। तस्य बहिः क्रीड़ाशकुनिपञ्जराणि। एकांते च तक्षतक्षणस्थानमन्यासां च क्रीडानाम्। स्वास्तीर्णा पेड्खदोला वृक्षवाटिकायां सप्रच्छाया। स्थण्डिलपीठिका च सकुसुमेति भवनविन्यासः।।4।।
अर्थ- यहां बहिःप्रकोष्ठ की सजावट का निर्देश दिया गया है-
घर के बाहरी प्रकोष्ठ (जिसमें नागरिक स्वयं रहता है) में अधिक नर्म, मुलायम, सुगंधित बिस्तर लगा होना चाहिए। सिर तथा पैर दोनों तरफ तकिये लगे होने चाहिए। पलंग बीच में से झुकी होनी चाहिए। पलंग के ऊपर साफ, स्वच्छ चादर होनी चाहिए तथा ऊपर मच्छरदानी तनी होनी चाहिए।
उसी पलंग के बराबर में उसी के समान एक और पलंग लगी होनी चाहिए जोकि सेक्स क्रिया के लिए है। उस पलंग के सिरहाने पर पलंग की ऊंचाई के बराबर वेदिका रखी हो। वेदिका में रात का बचा हुआ लेपन, फूल-मालाएं, मोमबत्ती, अगरबत्ती, मातृलुंग वृक्ष की छाल तथा पान रखे हुए होने चाहिए। पलंग के पास जमीन पर पीकदान (थूकने का बर्तन) रखा हो। हाथी-दांत की खूंटी पर टंगी हुई वीणा, चित्र बनाने का त्रिफलक, तुलिका तथा रंग के डिब्बे, सजी हुई किताबें और शीघ्र न मुरझाने वाली कुरण्टक पुष्प की माला हो।
पलंग के पास की जमीन पर एक गोल आसन बिछा होना चाहिए जिसके पीछे की तरफ सिर तथा पीठ के लिए एक गाव तकिया अथवा मनसद हो। बाहरी प्रकोष्ठ के बाहर खूंटियों पर पालतू पक्षियों के पिंजरे टंग रहे हो और किसी एकांत स्थान पर अपद्रव्य बनाने तथा बढ़ईगीरी का कार्य करने तथा अन्य प्रकार के आमोद-प्रमोद के लिए स्थान हो। वृक्षवाटिका भी साफ, सुंदर और सुविधायुक्त होना चाहिए।
श्लोक-5. स प्रातरुत्थाय कृतनियतकृत्यः गृहीतदंतधावनः, मात्रयानुलेपनं धूपं स्त्रजमिति च गृहीत्वा सिक्थकमलक्तकं च, दृष्टवादर्शे मुखम्, गृहीत्मुखावासताम्बूलः, कार्याण्यनुतिष्ठेत।।5।।
अर्थ- इस सूत्र में नागरिक की दिन तथा रात की क्रियाओं का वर्णन किया गया है। सबसे पहले उस नागरिक को सुबह जागकर, शौच आदि क्रियाओं से फ्री होकर, दांतों को साफ करके उचित मात्रा में मस्तक में चंदन आदि का लेप करके, बालों को धूप से सुवासित कर तथा सुगंधित माला आदि को पहनकर सिक्थम (मोम) तथा अलरक्तक (अलता) का उपयोग करके शीशे में चेहरे को देखकर सुगंधित तम्बाकू आदि खाकर दैनिक कार्यों को करना चाहिए।
श्लोक-6. नित्यं स्नानम्। द्वितीयकमुत्सादनम। तृतीयकः फेनकः। चतुर्थकमायुष्यम। पञ्चमकं दशमकं वा प्रत्यायुष्यमित्यहीनम्। सातत्याच्च संवृतकक्षास्वेदापनोदः।।6।।
अर्थ- निय़मित स्नान करें, हर दूसरे दिन पूरे शरीर की मालिश करें। तीसरे दिन साबुन का प्रयोग करें। चौथे दिन दाढ़ी तथा मूंछों के बाल कटवायें तथा पांचवे दिन या दसवें दिन गुप्त अंगों के बाल सावधानी से काटे। ढकी हुई कांखों के पसीनों को हमेशा सुगंधित पाउडर का प्रयोग करके सुखायें।
श्लोक-7. पूर्वाह्वयोभोजनम। सायं चारायणस्य।।7।।
अर्थ- स्नान करने के बाद भोजन तथा दिन में सोने का विधान-
भोजन दोपहर के पहले और दोपहर के बाद दो बार करना चाहिए। लेकिन आचार्य चारायण के अनुसार दूसरा भोजन शाम के समय का ही उपयोगी होता है।
श्लोक-8. भोजनानन्तरं शुकसारिकाप्रलापनव्यापारजः। लावककुक्कुटमेषयुद्धानि तास्ताश्च कला कीड़ाः। पीठमर्दविदूषकायत्ता व्यापाराः दिवाशय्या च।।8।।
अर्थ- भोजन करने के बाद लोग तोता-मैना को बोलते और पढ़ाते थे, उनसे बाते करते थे, लावक तथा मुर्गों की लड़ाई देखना तथा विभिन्न प्रकार की कलाओं और कीड़ाओं द्वारा मनोरंजन करना तथा उनके प्रिय कार्यों को मददगार पीठमर्द, विट तथा विदूषक के सुपुर्द किये गये कार्यों की ओर ध्यान देना चाहिए। इन सभी कार्यों के उपरांत सोये।
प्राचीन काल में भारत के नागरिक क्या खाते थे। इसके बारे में प्रबंधकोष, हर्ष चरित्र, कादम्बरी आदि ग्रंथों के वर्णनों से हो जाती है।
कादम्बरी का अध्ययन करने से यह जानकारी प्राप्त होती है कि उस समय के भोजन में सभी तरह के खाने एवं पीने योग्य पदार्थ शामिल होते हैं। इनमें गेहूं, चावल, जौ, चना, दाल, घी और मांस आदि सभी चीजें रसोई में प्रयोग की जाती थी। भोजन, नमकीन पदार्थों से शुरू किया जाता है तथा मिठाइयों से समाप्त होता था।
भोजन के बाद लोग सुक-सारिकाओं से बातें करते थे। प्राचीन काल में भारत में सुक-सारिकाओं का सम्मान राजमहल से लेकर ऋषि-मुनियों के आश्रम तक था।
श्लोक (9)- गृहीतप्रसाधनस्यापराह्णे गोष्ठीविहाराः।।
अर्थ- इसके दिवाशयन के बाद तीसरे पहर (शाम के समय) की दिनचर्या बताई जाती है- तीसरे पहर (शाम के समय) वस्रालंकार से विमंडित नागरक गोष्ठी-विहारों में मौजूद हो।
श्लोक (10)- प्रदोषे च संगीतकानि। तदन्ते च प्रसाधिते वासगृहे संजारितसुरभिधूपे ससहायस्य शय्यायामभिसारिकाणां प्रतीक्षणम्।
अर्थ- तथा शाम के समय संगीत की महफिल में शामिल होने के बाद सजे हुए वासगृह में अपने सहायकों के साथ बैठकर अभिसारिका के आने का इंतजार करें।
श्लोक (11)- दूतीनां प्रेषणम्, स्वयं वा गमनम्।।
अर्थ- देर हो जाने पर दूती को बुलाने के लिए भेजे या स्वयं ही उसे बुलाने जाएं।
श्लोक (12)- आगतानां च मनोद्दरैरालापैरुपचारैश्च ससहायस्योपक्रमाः।।
अर्थ- आई हुई नायिकाओं को दोस्तों के साथ अच्छी बातचीत और रसमय बर्ताव करके सम्मानित करें।
श्लोक (13)- वर्षप्रमृष्टनेपथ्यानां दुर्दिनाभिसारिकाणां स्वयमेव पुनर्मण्डनम्, मित्रजनेन वा परिचरणमित्याहोरात्रिकम्।।
अर्थ- अगर बारिश के कारण नायिका के कपड़े भीग जाते हैं तो स्वयं ही उसके कपड़े बदलकर उसका साज-श्रृंगार करें और मित्रों से सहायता लें। इस तरह से नागरक की दिनचर्यो तथा रात्रिचर्या समाप्त होती है।
आचार्य वात्स्यायन नागरक की दिनचर्या के बारे में बताते हुए उसे सजधज कर गोष्ठी विहार में जाने की सलाह दे देते हैं। प्रसाधन से तात्पर्य साज-श्रंगार से है जो कपड़ो और अलंकारों के द्वारा पूरा माना जाता है। प्राचीन भारत के नागरिक के वस्त्रालंकार किस प्रकार के थे। इसका अंदाजा पुरानी मुर्तियों के द्वारा किया जा सकता है।
भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र इसके बारे में कुछ संकेत किए हैं। उनके मुताबिक, अभिजात्य नागरिक क्षौभ, कार्पास, कौषेय तथा शंगव 4 तरह के कपड़े पहनते हैं। अलसी के रेशों को निकालकर उनसे जो कपड़े बनाए जाते थे, उनको क्षौम कहा जाता था।
क्षौम के कपड़ों को छाल से भी बनाया जाता था। कपास (रुई) से बने कपड़े कोशेय तथा ऊन के बने हुए कपड़े रागंव कहलाते थे। यह चारों प्रकार से कपड़े, निबन्धनीय, प्रक्षेप्य तथा आरोप्य। इन प्रकारों से पहने जाते थे। साड़ी, पगड़ी आदि निबंधीनीय कहलाते थे। चोलक तथा चोली प्रक्षेप्य और उत्तरीय, चादर, दुपट्टा आदि आरोग्य थे।
इस तरह के कपड़े पहनने के बाद नागरिक अलंकार धारण करता था। वराहमिहिर ने 13 तरह के रत्नों तथा 9 तरह के सोने से बने गहनों का उल्लेख वृहत्संहिता के अंतर्गत किया है। वज्रमुक्ता, पद्मराग, मरकत, इन्द्रनीली, वैदूर्य, पुष्पराग, कंकेतन, पुलक, रुधिरक्ष, भीष्म, स्फटिक तता प्रवाल इन 13 प्रकार के जवाहरातों से नागरिक के कई अलंकार बनते हैं।
जाम्बूनद, शातकौम्भ, हाटक, वेटक, श्रृंगी, शुक्तिज, जातरूप, रसविद्ध तथा आकरउद्धत- इन 9 तरह के सोने की जातियों और रत्नों को मिलाकर निम्नलिखित अलंकार बने होते थे।
आवेध्य, निबन्धनीय, प्रक्षेप्य, आरोप्य। अंग को छेदकर पहने जाने वाले गहने आवेध्य कहलाते हैं। अंगद वेणी, शिखाद्ददिका, श्रोणी सूत्र, चूड़ामणि आदि बांधकर पहने जाने वाले गहने निबंधलीय के नाम से भी जाने जाते हैं।
अर्निका कटक, वलय, मंजीर आदि अंग में डालकर पहने जाने वाले अलंकार प्रक्षेप्य कहा जाता है। हार नक्षत्रमालिका आदि आरोपित किए जाने वाले गहने आरोग्य कहलाते हैं।
रत्न अलंकारों तथा कपड़ो को पहनने के बाद माल्य-अलंकार धारण करता था। वह माल्य 8 प्रकार के होते थे। उद्धर्वित, विवत, संघाट्य ग्रंथिमत, अवलंबित. मुक्तक, मंजरी तथा स्तवक। मालाओं को पहनने के बाद वह मंडन द्रव्यों से मंडित होता था।
कस्तूरी, कुंकुम, चंदन, अगुरू, कुलक, दंतसम पटवास सहकार, बैल, तांबुल, अलकत, अंजन, गोरोचन आदि उस समय के मंडन द्रव्य थे। इन द्रव्यों की सहायता से नागरक भ्रूघटना, केश रचना आदि योजनामय अलंकार तथा देश-काल की परिस्थिति के अनुरूप श्रमजल, मद्य-मद आदि जन्य और दूर्वा, अशोक, पल्लव यवांकुर, रजत, टापू शंख, तालदल, दंतपात्रिका मृणाल वलय आदि निवेश्य से मंडित होकर विहार गोष्ठियों में जाता था।
आचार्य वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में जिन 64 कलाओं के बारे में बताया है उनमें से 2 तिहाई कलाएं बौद्धिक अथवा साहित्यिक है। दित्याशय्या के बाद कपडे अलंकार से विमंडित नागरिक जिन गोष्ठियों में भाग लेता था। वह गोष्ठिया ज्यादातर बौद्धिक तथा साहित्यिक ही हुआ करती थी। उच्चकोटि के श्रीमंत नागरिक की गोष्ठी के साथ प्रधान अंग होते थे।
विद्वान, भाट, मसखरे, कवि, गायक, पुराणज्ञ और इतिहासज्ञ- ये सातों अंग बौद्धिक तथा काव्यशास्त्र विनोदों में भाग लिया करते थे। आचार्य वात्स्यायन के अनुसार अच्छी या बुरी 2 प्रकार की गोष्ठी जमती थी। 1-2 मनचले लोगों की गोष्ठी- जिसमें जुआ, हिंसा आदि कुकर्म शामिल थे। दूसरे भले मनुष्यों की गोष्ठी जिसमें खेल और विद्याएं शामिल थी।
पुराने समय में पदगोष्ठी, जलगोष्ठी, गीतगोष्ठी, नृत्यगोष्ठी, काव्यगोष्ठी, वीणागोष्ठी, वाद्यगोष्ठी आदि कई प्रकार की गोष्ठियों में नागरिक भाग लेते थे। इन गोष्ठियों के विषय, कहानियां, कलाएं, काव्य, गीत, नृत्य, चित्र और वाद्य आदि होते थे। विद्यागोष्ठी की अंगभूत गोष्ठियां काव्यगोष्ठी, पदगोष्ठी और जलगोष्ठी थी। विद्यागोष्ठी का खास समादरण था।
काव्यगोष्ठियों में काव्य-प्रबंधो का आयोजन होता था। जलगोष्ठी में आख्यान, आख्यायिका, इतिहास और पुराण आदि सुनाए जाते थे। पदगोष्ठी में अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक, बिन्दुमती, गूढ़ चतुर्थपाद आदि प्रकार की बुद्धि बढ़ाने वाली पहेलियां रहती थी।
हर्षचरित के अंतर्गत बाण ने वीरगोष्ठियों के बारे में भी बताया है जिसमें रणभूमि में साका करने वाले वीरों की कहानियां कही और सुनी जाती थी। इस तरह की गोष्ठियों में भारत के पुराने नागरिक के बुद्धिचातुर्य की परीक्षा होती थी। इसके साथ ही मनोरंजन भी होता था। गोष्ठी विनोद के बाद शाम के समय संगीत का आयोजन हुआ करता था।
नागरिक संगीत गोष्ठी को खत्म करके वासगृह में पहुंचकर अभिसारिका की प्रतीक्षा करता है। प्रसाधित वासगृहे का मतलब टीकाकारों नें धूप से खुशबूदार किया हुआ कमरा बताया है लेकिन यह गलत है। पुराने समय में राजा, अमीरों तथा संपन्न नागरिकों के यहां वासागृह बने हुए होते थे। जहां पर विवाह के बाद दूल्हा-दूल्हन का चतुर्थी कम संपादित हुआ करता था।
वासागृह के अंतर्गत दुल्हा-दुल्हन तथा प्रेमी-प्रेमिका के बैठकर प्यार भरी बातें, आलिंगन, चुंबन आदि रति-क्रियाएं करने के लिए एक ही पलंग हुआ करता था।
दरवाजों के पल्लों पर कामदेव की दोनों स्त्रियों प्रीति और रति की आकृतियां बनी हुआ करती थी। दोनों ही पल्लों पर मंगल-दीप जला करते थे। एक तरफ फूलों से बोझिल रक्त-अशोक के नीचे धनुष पर बाण रखे हुए निशाना साधे हुए कामदेव का चित्र बना हुआ रहता था। सफेद रंग की चादर से ढके हुए पलंग की बाजू में कांचन आचामरुक रखी होती थी और दूसरी तरफ हाथीदांत का डिब्बा लिए हुए सोने की पुत्तलिका खड़ी रहती थी। सिरहाने पर पानी से भरा हुआ चांदी का निद्राकलश रखा हुआ रहता था।
वासागृह की भित्तियों पर गोल-गोल शीशे लगे हुए होते थे, जिनमें प्रियतमा के बहुत सारे प्रतिबिंब पड़े रहते थे। 11वीं शताब्दी में ऐसे वासगृहों को आदर्श भवन कहा जाने लगा था तथा बाद में ये शीशमहल या अरसी महल कहलाने लगे थे।
श्लोक (14)- घटानिबंधनम्, गोष्ठीसमवायः, समापानकम्, उद्यान गमनम, समस्या क्रीडाश्च प्रवर्तयेत्।।
अर्थ- इसमें 5 तरह के सामूहिक विनोदों के बारे में बताया गया है। घटानिबंधन गोष्ठी समवाय, समापानक, उद्यानगमन तथा समवयस्क मित्रो के साथ खेल खेलना- इन 5 प्रकार की क्रीड़ाओं में नागरिक को यथावसर प्रवृत्त होना चाहिए।

घटानिबंध :

घटानिबंधन देवायतन में जाकर सामूहिक नृत्य-गान करने अथवा गोष्ठी का बोधक हैं। पुराने भारत का नागरिक हर मौसम में बहुत से उत्सवों का आयोजन करता था। शरद, बसंत, हेमंत तथा बारिश के मौसम के अनेक उत्सवों का विवरण पुराने ग्रंथों में बहुत ज्यादा मात्रा में मिलता है।

गोष्ठीसमवाय :

इस तरह की गोष्ठियों को नागरिक अपने घर पर ही आयोजित किया करते थे या किसी गणिका के घर पर। विद्या तथा कला में माहिर कन्याएं गोष्ठी समवाय में जरूर हिस्सा लेती थी तथा पुरुषों की तरह कई प्रकार की काव्य समस्याओं, मानसी, काव्यक्रिया, पुस्तक वाचक, दुर्वाचस योग, देशभाषाविज्ञान, छंद, नाटक आदि बौद्धिक तथा उपयोगी कलाओं में भाग लेती थी और साथ ही गीत, नृत्य और रसालाप द्वारा मौजूद सभ्यों का मनोविनोद भी किया करती थी।

समापानक :

अच्छी तरह से जी भरकर शराव का सेवन करना समापानक है। इस तरह के समापानक मनोरंजन साल में एकाध बार किए जाते थे क्योंकि कौटिल्य अर्थशास्त्र के द्वारा पता चलता है कि उस जमाने में भी शराब बनाने, पीने और बेचने पर बहुत ज्यादा नियंत्रण था। आज की तरह उस समय का भी सरकार का आबकारी विभाग शराब के ठेकों तथा शराब के बनाने आदि की व्यवस्था करता था।
इस तरह के प्रबंध करने वाले व्यक्ति को सुराध्यक्ष कहते थे जो शराब के बनवाने और बेचने का प्रबंध काबिल व्यक्तियों द्वारा किया करता था। सुविधा के अनुसार शराब के ठेके भी वही देता था।
अगर कोई व्यक्ति गैर-कानूनी तरीके से शराब बेचते हुए पकड़ा जाता था तो उसे सजा मिलती थी। शराब के मंगवाने या भेजने पर नियंत्रण रहता था। खुलेआम शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा हुआ था। जो व्यक्ति शराब पीकर दंगा-फसाद करता था उसे पकड़ लिया जाता था। शराब को उधार नहीं बेचा जाता था। मद्यशालाओं को बनवाने के लिए सरकारी नक्शे तैयार किये जाते थे और फिर उन्ही के आधार पर उनका निर्माण कार्य होता था। इसके अलावा सरकारी गुप्तचर विभाग का काम यह था कि वह रोजाना बिकने वाली शराब को नोट कर लें।
समापानक जैसे उत्सवों के मौके पर मद्यनिर्माण और मद्यपान का अलग से सरकारी कानून था। इन मौकों पर सिर्फ श्वेतसुरा, आसव, मेदक और प्रस्सना नाम की शराब ही पी जाती थी।
सुराध्यक्ष की इजाजत से नागकरण इन शराबों को अपने घर पर ही तैयार कर लिया करते थे। मदन महोत्सव आदि खास तरह के मौकों पर सिर्फ 4 दिनों तक खुलकर सामूहिक रूप से सरकार की तरफ से शराब पीने की छूट दी जाती थी। ऐसे मौकौं पर सुराध्यक्ष से व्यक्तिगत रूप से सामूहिक रूप से इजाजत लेने की जरूरत नहीं पड़ती थी।
कामसूत्र में बताया गया है कि उन दिनों राजभवनों में अक्सर आपानकोत्सव या पान गोष्ठी के आयोजन हुआ करते थे। इन मौकों पर बाहर के प्रेमी लोग बिना किसी रोक-टोक के राजभवन में प्रवेश किया करते थे।

उद्यानगमन :

आचार्य वात्स्यायन नें स्वंय बताया है कि उस समय उद्यानगमन मनोविनोद किस तरीके से संपादित होता था। उद्यान यात्रा के लिए पहले से एकदिन तय कर लिया जाता था। उस दिन नागरिकगण सुबह से ही पूरी तरह सजधज कर तैयार हो जाया करते थे।
यह यात्रा किसी उद्यान या वन की ही की जाती है जो नागरिकों के निवास-स्थान से इतनी दूरी पर हो कि शाम तक घर पर वापिस पहुंच सके। इन उद्यान यात्राओं में कभी-कभी अन्तःपुरिकाएं भी साथ में रहती थी और कभी-कभी गणिकाओं को भी ले जाया जाता था।
उद्यान यात्रा एक तरह का गोठ अथवा पिकनिक होती थी। ऐसे अवसरों पर हिन्दोल लीला, समस्यापूर्ति, आख्यायितका, बिंदुमती आदि अनेक तरह की पहेलियां खेला करती थी। कुक्कुट, लाव, मेष, बटेर आदि पशु-पक्षियों की लड़ाईयां कराई जाती थी। इसी मौके पर कहीं-कहीं क्रीडैकशाल्मली खेल खेला जाता था। सेमल के पेड़ के नीचे ही इस खेल को खेला जाता था। यशोधर के अंतर्गत विदर्भ प्रदेश के नागरिक इस खेल में ज्यादा शौक रखते थे।
पांचवां मनोविनोद समस्या क्रीड़ाओं का है जो सामूहिक रूप से खेली जाती थी। यह काव्य-कला संबंधी क्रीड़ाएं अक्सर उत्सवों में स्थान पाती थी लेकिन कभी-कभी खासतौर पर इसी विषय के दंगल होते थे। इस विनोद में खासतौर पर निम्नलिखित काव्य-क्रीड़ां होती थी।
मानसीकला
इस विनोद के अंतर्गत श्लोक के अक्षरों की जगह पर कमल या किसी दूसरे फूल की पंखुड़ियों को बिछा देते थे और उन पंखुड़ियों से ही श्लोक पढ़ा जाता था। इसका दूसरा रूप यह भी था कि अमुक स्थान पर यह मात्रा है, कहीं पर अनुस्वार है, कहीं पर विसर्ग है। बस इतने सी ही उसे पूरा श्लोक बनाना पड़ता था।
प्रतिमाला
इसको अंतयाक्षरी भी कहते हैं। एक पक्ष श्लोक पढ़ता था और दूसरा पक्ष श्लोक के अंत्याक्षर से शुरू करके दूसरा श्लोक पढ़ता था।
अक्षरमुष्ठि
यह समस्या 2 तरह की होती थी-सभासा और निरवभाषा। किसी नाम को संक्षिप्त करके बोलना सभासा कहलाता है जैसे फाल्गुन, चैत्र, वैशाख को छोटा करके फा-चै-वै बोलना। गुप्त तरीके से बातचीत करना निरवभासा के लिए अनेक प्रकार के इशारे काम में लाए जाते हैं। इसमें एक विधि अक्षरमुष्दि है। इसमें कवर्ग अक्षरों के लिए मुट्ठी बांधी जाती रही है। चवर्ग के लिए हथेली फैला दी जाती थी।
इसका विधान यह है कि जो कुछ भी बोलना होता है पहले उसके अक्षरों के वर्गों के संकेत किए जाते हैं। वर्ग बताने के बाद उंगलियों को उठाकर वर्ग अक्षर बताएं जाते हैं जैसे अगर कहना है ग तो पहले वर्ग बताने के लिए मुट्टी बांधी गई और इसके बाद तीसरी उंगली उठाकर अक्षर बतला दिया गया। वर्ग तथा अक्षर बताने के बाद पैर उठाकर अथवा चुटकी बजाकर मात्राएं बताई जा सकती है।
उस समय का हर नागरिक इस प्रकार के काव्य विनोदों को अभ्यास प्रयत्नपूर्वक करता था क्योंकि यश, कीर्ति और लाभ के स्रोत भी ऐसे खेल माने जाते थे। इनके अलावा अक्षरक्रीड़ा, द्यूत समाद्वय, जलक्रीड़ा उदक्ष्वेडिका, कुसुमावचय आदि क्रीड़ांए होती थी।
श्लोक (15) पक्ष्सय मासस्य वा प्रज्ञातेऽहनि सरस्वत्या भवने नियुक्तानां नित्यं समाजः।।
अर्थ- पहली सूचना के मुताबिक 15वें दिन या एक महीनें में निश्चित दिन में सरस्वती के मकान में नागरकगण इकट्ठा हो।
श्लोक (16) कुशीलवाश्चागंतवः प्रेक्षणकमेषां दद्युः। द्वितीयेऽहनि तेभ्यः पूजा नियतं लभेरन्। ततो यथाश्रद्धमेषां दर्शनमुत्सगर्गो वा। व्यसनोत्सवेषु चैषां परस्परस्यैककार्यता।।
अर्थ- स्थायी नियुक्त नट, नर्तक आदि कलाकार समाज उत्सव में भाग लें। बाहर से आए हुए नट, नर्तक भी दर्शकों को अपनी कला-कुशलता का परिचय दें तथा दूसरे दिन वे सही पुरस्कार हासिल करें। इसके बाद अगर नागरिकों में उनके प्रति सम्मान का भाव हो तो उन्हे कला-प्रदर्शन के लिए रोका जा सकता है। आगंतुक कलाकारों तथा स्थानीय कलाकारों में आपसी सहयोग तथा एकता की भावना होनी चाहिए।
दुर्वाचनयोग
इसमें ऐसे मुश्किल शब्दों के श्लोक हुआ करते थे जिन्हे आसानी से पढ़ा नहीं जा सकता था।
श्लोक (17)- आगन्तूनां च कृतसमवायानां पूजनमभ्युपत्तिश्च। इति गणधर्मः।।
अर्थ- समाज उत्सव देखने के लिए सरस्वती भवन में आयोजित अगर ऐसे लोग आएं जो गोष्ठी के सदस्य न हो तथा बाहर से आए हुए हो तो उनकी अभ्यर्चना तथा मेहमानों का सत्कार यथाविधि करना चाहिए। किसी तरह की मुसीबत आने पर उनकी मदद भी करनी चाहिए। इसी गणधर्म होता है।
आचार्य वात्स्यायन के समयमें 5 तारीख की रात को सरस्वती जी के मंदिर में समाजोत्सव मनाया जाता था। उस समय के उत्सवों में इस पहले दर्जे का उत्सव माना जाता था।
इन उत्सवों के समय बहुत ज्यादा भीड़-भाड़ हुआ करती थी। इन उत्सवों में वहां के नट-नाटियों के अलावा बाहर से भी नट-नाटियां, नर्तक, कुशीलव आदि अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए आया करते थे। हर कलाकार अपनी कला द्वारा दर्शकों को खुश तथा मंत्रमुग्ध करने की कोशिश करता था। बाहर से आए हुए कलाकारों के रुकने के लिए भोजन आदि के प्रबंध का कार्य एक-एक व्यावसायिक श्रेणी पर छोड़ दिया जाता था। 5 तारीख (पंचमी) के अलावा अन्यान्य देवालयों में इस तरह का समावजोत्सव मनाया जाता था।
समाज आर्य जाति का बहुत ही पुराना और संभवतः आदि उत्सव है। वैदिक काल में समाज का नाम समन था जिसे एक तरह का मेला कहा जाता था। इन समनों के अंतर्गत पुरुषों के अलावा स्त्रियां भी आती थी जो दिल बहलाने के लिए काफी संख्या में उपस्थित होती थी। कवि, धनुर्धर और रेस के घोड़े भी इनाम पाने की हसरत रखकर वहां पर पहुंचते थे। इनके अलावा गणिकाएं भी नाम और धन पाने की हसरत रखकर अपनी कला दिखाने के लिए वहां पर पहुंचा करती थी।
इस मेले की एक खासियत यह थी कि इसमें अपना मनचाहा वर पाने के लिए वयस्क कुमारी कन्याएं काफी संख्या में भाग लेती थी। यह मेला पूरी रात चलता था।
कामसूत्र तथा उससे पहले परिवर्ती साहित्य के अध्ययन से यह पता चलता है कि समाज उत्सव पहले निर्दोष आमोद-प्रमोद का एक सामुदायिक आयोजन था। बाद में इसका एक दूसरा रूप भी बन गया जिसके अंतर्गत शराब पीना, मांस खाना, केलि-क्रीड़ाएं भी होने लगी।
इस प्रसंग में गणभोज की भी व्यवस्था की गई थी जिसमें कई प्रकार के व्यंजन, अनाज और सब्जियां आदि बनी हुई थी। इनके साथ मांस का भी पूरा प्रबंध होता था। भगवान ने उन मल्लों को महंगे कपड़े तथा मुद्राएं देकर सम्मानित किया था।
कदाचित हिंसामूलक खाने वाले पदार्थों तथा चरित्रहीनता बढ़ने के कारण प्रियदर्शी अशोक ने अपने शिलालेखों में ऐसे शिलालेखों में ऐसे समाजोत्सव की निंदा की है।
श्लोक (18)- एतेन तं तं देवताविशेषमुद्दिश्य संभावितस्थितयो घटा व्याख्याताः।
अर्थ- इस प्रकार, शिव, सरस्वती, यज्ञ, कामदेव आदिदेवताओं के आलयों में यथासंभव जुटने वाली सामुदायिक गोष्ठियों-मेलों का विवरण पेश किया है।
श्लोक (19)- गोष्ठीसमवायमाह
वेश्याभवने सभायामन्यतमस्योद्वसिते वा समानविद्याबुद्धिशीलवित्तवयसां सह वेश्याभिरनुरुपैरालापैरासनबंधो गोष्ठी।
अर्थ- इसके अंतर्गत गोष्ठी समवाय की व्याख्या की गई है-
बुद्धि, संपत्ति, विद्या, उम्र और शील में अपने समान मित्रों, सहचरों के साथ वेश्या के घर में, महफिल में अथवा किसी नागरिक के निवास स्थान पर गोष्ठी समवाय का आयोजन करना चाहिए।
श्लोक (20)- तत्र चैषां काव्यसमस्या कलासमस्या वा।
अर्थ- वहां सुयोग्य वेश्याओं के साथ बैठकर मधुर तथा मनोरंजक बातचीत करें। काव्य व अन्य बौद्धिक, साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लेकर काव्य चर्चा, कला चर्च तथा साहित्य चर्चा करें। साहित्य, संगीत और कला जैसे विषयों पर आलोचनात्मक, तुलनात्मक चिंतन किया जाना चाहिए।
श्लोक (21)- तस्यामुज्ज्वला लोककान्ताः पूज्याः। प्रीतिसमानाश्चाहारितः।
अर्थ- और इस प्रकार की गोष्ठी समवाय में सम्मिलित प्रतिभाशाली कलाकार का अच्छा सम्मान करना चाहिए और बुलाए गए मेहमानों तथा कलाकारों का खासतौर पर सम्मान करना चाहिए।
श्लोक (22)- परस्परभवनेषु चापानकानि।।
अर्थ- एक-दूसरे के घर पर जाकर सुरापान, मैरेथ और मधु का पान करना चाहिए।
श्लोक (23)- तत्र मधुमैपेसुरावान्तिविधलवणफलहरितशाकतिक्तकटुकामलोपदंशान्वेश्याः पाययेयुरनुपिबेयुश्च।।
अर्थ- इसके अंतर्गत मधु, मैरीय, सुरा और आसव आदि शराबों को अनेक प्रकार के लवण, फल, हरी सब्जियां, चरपरे, कड़वे तथा खट्टे मसालों के साथ नागरिकों को वेश्याओं को स्वंय ही पिलाना चाहिए तथा इसके बाद खुद पीना चाहिए।
श्लोक (24)- एतेनोद्यानगमनं व्याख्यातम्।।
अर्थ- इस तरह से उद्यान यात्रा में भी समापानक होना चाहिए। अंगूर अथवा दाख के रस से जो शराब बनाई जाती है उसे मधु कहा जाता है। इसके कापिशायन तथा हारहूरक ये 2 नाम और है। भारत का रसिक रईस मधु शराब को साफ करवाकर पीता था।
मरोड़ की फली, पलाश, छोह, भारक, मेढ़ासिंगी, करंजा, क्षीरवर्ग के कदि की भावना दिया गया खादार शक्कर का चूरा और उसका आधा लोध, चीता, वायविडंग, परम, मोथा, कलिंग, जौ, दारुहल्दी, कमल, सौंफ, चिचिड़ा, सतपर्ण आक का फूल को एकसाथ पीसकर चूर्ण बनाकर इकट्ठा करके एक मुट्ठी मसाला एक सारी परिमाण शराब में डालकर शराब को इस प्रकार साफ बनाया जाता था कि पीने वाले खुश हो जाते थे। कभी-कभी स्वाद को बढ़ाने के लिए इसमें 5 पल राब भी मिला दी जाती थी।
मैरेय शराब को तैयार करने के लिए मेढ़ासिंगी की छाल का काढ़ा बनाया जाता था और फिर उसमें गुड़, पीपल और कालीमिर्च को मिलाया जाता था। कभी-कभी पीपल की जगह त्रिफला का प्रयोग कर लिया जाता था।
उस समय में सुरा (शराब) 4 प्रकार की होती थी :
• सुरा,
• रसोत्तरा,
• सहकार,
• बीचोत्तरा तथा सम्भारकी
• साधारण सुरा (शराब) में अगर आम का रस निचोड़ दिया जाता था तो वह सहकार सुरा बनती थी।
• अगर साधारण सुरा में गुड़ की चाशनी निचोड़ दी जाती है तो वह रसोत्तर शराब बनती है।
• साधारण सुरा में बीजबंध बूटियां छोड़ देने पर महासुरा बनती है।
• मुलहठी, दूध, केशर, दारुहल्दी, पाठा, लोध, इलायची, इत्र फुलेल, गजपीपल, पीपल और मिर्च आदि को साधारण सुरा में मिला देने से सम्भारिकी सुरा बनती थी।
आसव को बनाने में 100 पल कैथे का सार, 500 पल राब और एक प्रस्थ शहद का प्रयोग किया जाता था। इसमें पड़ने वाला मसाला, दालचीनी, चीता, गजपीपल, वायविडंग 1-1 कर्ष और और 2-2 कर्ष सुपारी, मुलहठी, लोघ और मोथा लेकर आसव में मिलाया जाता था।
इन शराबों को पीने के साथ-साथ कई तरह के लवण, सब्जी के अलावा खट्टे-मीठे, चरपरे पदार्थ खाए जाते थे। आचार्य वात्स्यायन नें ऐसे पदार्थों को उपदंश लिखा है। उपदंश शब्द का अर्थ लिखते हुए हलायुध कोष ने कहा है कि मद्यपान रोचक भोज्य द्रव्यम अथवा शराब पीने के सहाये रोचक भोज्य पदार्थ।
आषानक गोष्ठियों में वेश्याओं की उपस्थिति अपेक्षित मानी जाती थी। वे रसिक नागरक को चषक भरकर शराब पिलाती तथा स्वयं भी पिया करती थी। उद्यान यात्राओं में भी गणिकाएं साथ जाया करती थी और वहां भी मद्यपान होता था।
श्लोक (25)- पूर्वाह्ण एव स्वलंकृतास्तुरगाधिरूढ़ा वेश्याभिः सह परिचारकानुगता गच्छेयुः। दैवसिकीं च यात्रां तत्रानुभूय कुक्कुटयुद्धद्यूतेः प्रेक्षाभिरनुकूलैश्च चेष्टितैः कालं गमयित्वा अपराह्णे गृहीततदुद्यानोपभोगाचिह्नास्तथैव प्रत्याव्रजेयुः।।
अर्थ- इसके अंतर्गत क्रीड़ा उत्सवों और क्रीड़ाओं के बारे में बताया जाता है-
सुबह-सुबह ही गहने-कपड़े पहनकर तथा घोड़े पर सवार होकर गणिकाओं और सेवकों को साथ लेकर उद्यान यात्रा पर जाना चाहिए। यह उद्यान यात्रा इतनी दूर की होनी चाहिए कि शाम तक वापिस पहुंच जाए। उद्यान में जाकर रोजाना के कामों से निपटकर लावक तथा मेढ़ों की बाजी लगाई गई लड़ाईयां देखें, नृत्य नाटक देखें, जुआ खेलें, संगीत का आनंद लें, मनोरंजक खेलों को खेलें। शाम से पहले उद्यान यात्रा के स्मृति-चिन्ह फल, फूल, पत्ते, स्तबक आदि लेकर जिस तरह आए थे उसी तरह घर पर वापिस लौटना चाहिए।
श्लोक (26)- एतेन रचितोदग्राहोदकानां ग्रीष्मे जलक्रीडागमनं व्याख्यातम्।।
अर्थ- इस तरह गर्मी की जल क्रीड़ाओं में लीन हो जाना चाहिए। गर्मी के मौसम का उत्तम मनोविनोद जल-क्रीडा़ होता है। जिस समय जमीन और आसमान तेज लू से धधकने लगते थे, उस समय पुराने भारत का श्रीमंत नागरक सर्पनिर्भीक के बराबर महीन वस्त्रों, सुगंधित कपूर का चूर्ण, चंदन का लेप तथा पाटल-फूलों से सुसज्जित धारागृह का प्रयोग दिल खोलकर करता था।
जब विलासनियां गृह वापिकाओं में जल-क्रीड़ा किया करती थी तो कान में घुसाए हुए शिरीष-कुसुम पानी में छा जाते थे। चंदन तथा कस्तूरिका के आमोद से और नाना रंग के अंगरागों से तथा श्रंगार-साधनों से पानी रंगीन हो जाता है।
जल-स्फलन से पैदा हुए जल बिंदुओं से आसमान में मोतियों की लड़ी बिछ जाती थी। तालाब के अंदर से गूंजते हुए मृदंग घोष को, बादल के स्वर जानकर, सोचे-विचारे मयूर उत्सुक हो उठते थे। बालों से खिसके हुए अशोक-पल्लवों से कमल-दल चित्रित हो उठते थे तथा आनंद कल्लोल से दिकमण्डल मुखरित हो उठता था। प्राचीन चित्रों के द्वारा यह जलकेलि, मनोरम भाव अंकित है।
श्लोक (27)- यक्षरात्रिः। कौमुदीजागरः। सुवसंतक।।
अर्थ- इसके अंतर्गत समस्या क्रीड़ाओं का परिचय दिया जाता है-
यक्षरात्रि कौमुदी जागर तथा सुनसंतक उत्सवों में समस्या क्रीड़ाएं रचाई जाती है-
आचार्य वात्स्यायन के समय में यज्ञ रात का उत्सव का आयोजन किया जाता था। दीपावली उत्सव का उल्लेख पुराणों, धर्मसूत्रों, कल्पसूत्रों में विस्तृत रूप से मिलता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि कामसूत्र के अंतर्गत दीपावली का कोई उल्लेख न होकर रात के यज्ञ का जिक्र किया गया है। रात्रि यज्ञ से इस बात का पता चलता है कि उस समय, उस दिन यज्ञ की पूजा होती रही होगी तथा द्यूत-क्रीड़ा रचाई जाती है।
अगर व्याकरण का आधार लेकर अर्थ निकाला जाए तो यज्ञ यते पूज्यते इतियज्ञ-छञ-यज्ञः तथा यज्ञ रात्रि निष्पन्न होता है।
मुनकिन है इसी अर्थ को लेकर दीपावली का नाम उस समय यज्ञरात्रि रखा गया हो। पुराने समय में शायद दीपावली उत्सव शास्त्रीय अथवा धार्मिक रूप में नहीं मनाया जाता रहा है क्योंकि वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों के अंतर्गत इसका कोई विवरण नहीं है। स्कन्दपुराण तथा पद्मपुराण में इस पर्व का पूरा विवरण पाया जाता है। उसी के आधार पर दीपावली के उत्सव का प्रचलन अब तक है। कार्तिक की अमावस्या के साथ यज्ञ शब्द जोड़ने का तात्पर्य श्रीसूक्त से साफ हो जाता है। श्रीसूक्त ऋग्वेद के परिशिष्ट भाग का एक सूक्त है। इस सूत्र के एक मंत्र में मणिना सह कहा गया है।
इस वाक्य से पता चल जाता है कि लक्ष्मी का संबंध मणिभद्र यज्ञ से है। मणिभद्र यज्ञ से लक्ष्मी का घनिष्ठ संबंध होने से कामसूत्र के समय तक दीपावली की रात यज्ञरात्रि कहलाती है।
निसंदेह इतना तो कहा जा सकता है कि दीपावली का आधुनिक रूप में जो प्रचलन है वह ईसवीं तीसरी शती के बाद से शुरू होता है और आचार्य वात्स्यायन के समय इसी के पहले सुनिश्चित है। यह अनुमान किया जा सकता है कि वात्स्यायन के समय में कार्तिक की अमावस्या की रात में लक्ष्मी को पूजने और द्यूत-क्रीड़ा की प्रथा रही होगी।
कौमुदी जागरण
उत्सव अनुमानतः शुरू में विशुद्ध लोकोत्सव रहा होगा क्योंकि संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रंथों में आश्विन पूर्णिमा को बिल्कुल भी महत्व नहीं दिया गया है।
आश्विन पूर्णिमा की रात में होने वाला यह उत्सव पालि ग्रंथों में कौमदीय-चातुमासनीय छन बतलाया गया है। यह उत्सव मौसम बदलाव के लिए मनाया जाता था। कामसूत्रकार ने इसी को कौमुदी जागरण लिखा है।
गहसूत्रों में अश्वयुज की पू्र्णिमा को काफी महत्व दिया गया है। गहसूत्रों के द्वारा पता चलता है कि इन उत्सव के मौके पर उस वर्ण के लोग भड़कीले कपड़े पहनकर बड़े उल्लास के साथ अश्वयुजी उत्सव मनाते थे। पशुपति, इंद्र, अश्विन आदि देवताओं को खुश करने के लिए यज्ञ हवन भी किए जाते थे तथा खीर का भोग लगाया जाता था।
आर्यशूर के द्वारा लिखित जातक माला में शिविराज्य की राजधानी में उस दिन नगर भर में चहल-पहल रहती थी। सड़को, चौमुहनियों में पानी का छिड़काव किया जाता था, उन्हे सजाया-संवारा जाता था। साफ-सुथरे धरातल पर फूल बिखेर दिए जाते थे। चारों तरफ झंडे, पताका तथा वन्दनवार लहराए जाते हैं। जगह-जगह पर नृत्य-नाटक, गीत वाद्य के जमघट लगे होते थे।
मात्स्य सूक्त के द्वारा सुवसंतक के दिन ही बसंत ऋतु का अवतरण होता है। इसी रोज मदन की पहली पूजा होती है। वसन्तावतार को आजकल वसन्तपंचमी कहा जाता है। सरस्वती कण्ठाभरण से पता चलता है कि सुवसंतक के दिन विलासिनियां कण्ठ में कुवलय की माला तथा कानों में दुष्प्राप्य नवआम्रमंजरी खोसकर गांव को रोशन कर देती है।
ऋतुसंहार से यह पता चलता है कि बंसत का मौसम आते ही विलासिनियां गर्म कपड़ो का भार उतार फैंकती थी। लाक्षा रंग अथवा कुंकुम से रंजित और सुगंधित कालगुरू से सुवासित हल्की लाल साड़िया पहनती थी। कोई कुसुंभी रंग से रंगे हुए दुकूल धारण करती थी तथा कोई-कोई कानों में नए कर्णिकार के फूल, नील अलकों में लाल अशोक के फूल तथा स्तनों पर उत्फुल्ल नवमल्लिका की माला पहनती थी।
गरुण पुराण के इन सुझावों से यह पता चलता है कि यह एक व्रत है जो समूह से संबंधित न होकर व्यक्ति से संबंधित है।
श्लोक (28)- सहकारभज्जिका, अभ्यूषखादिका, बिसखादिका, नवपत्रिका, उदकक्ष्वेडिका, पाञ्ञालानुयानम्, एकशाल्मली, कदम्बयुद्धानि, तास्ताश्च क्रीडा जनेभ्यो विशिष्टामाचरेयुः। इति संभूयक्रीड़ाः।।
अर्थ- इसके अंतर्गत दूसरे क्षेत्रीय क्रीड़ाओं का वर्णन किया जाता है-
सहकार भन्जिका, अभ्यूपखादिका, विसखादिका, नवपत्रिका, उदकक्ष्वेडिका, पान्चालानुयान, एकशाल्मलि कदम्बयुद्ध- इन स्थानीय तथा सार्वदेषिक क्रीड़ाओं में नागरक लोग अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार ही खेलें। सामूहिक क्रीड़ाओं का वर्णन खत्म होता है।
आचार्य वात्स्यायन ने बसंत के मौसम में खेली जाने वाली क्रीड़ाओं के नाम यहां पर बताए हैं। कामसूत्र की जयमंगला टीका में उनके अलावा उद्यान यात्रा, खलिल क्रीड़ा, पुष्पावचयिका, नवाम्रखादनिका और आम तथा माधवीलता का विवाह- इन क्रीड़ाओं को बसंत के मौसम में उसके बाद निदाध में खेलने का समर्थन किया गया है।
इसके अंतर्गत आचार्य वात्स्यायन एकांकी व ऐश्वर्यहीन नागरिकों के मनोरंजन का सुझाव पेश कर रहे हैं-
श्लोक (29)- एकचारिणश्च विभवसामर्थ्याद्।।
अर्थ- दुर्भाग्यवश नागरिकों से रहित नागरक अगर अकेले में विचार करता है तो वह अपनी ताकत के अनुकूल ही क्रीड़ा करे।
श्लोक (30)- गणिकाया नायिकायाश्च सखीभिर्नागरकैश्च सह चरितमेतने व्याख्यातम्।।
अर्थ- इसी तरह से एकांकिनी हो जाने पर गणिकाएं तथा नायिकाएं भी नागरिकों तथा सहेलियों के साथ मौसम संबंधी क्रीडा़एं करें।
श्लोक (31) अविभवस्तु शरीरमात्रो मल्लिकाफेनककषायमात्रपरिच्छदः पूज्याद्देशादागत कलासु विचक्षणस्तदुपदेशेने गोष्ठयां वेशोचिते च वृत्ते साधयेदात्मानमिति पीठमर्दः।।
अर्थ- इसके अंतर्गत उपनागरकों का परिचय देते हुए उनके आचरण के बारे में बताया गया है-
किसी सांस्कृतिक स्थान से आया हुआ कालाविचक्षण नागरिक अगर गरीब हो, उसके पास मल्लिका, फेनक तथा कषाय मात्र ही बाकी बचे हो तो वह नागरिकों की संभाओं, उत्सवों में जाकर और वेश्याओं के यहां जाकर उनको हितकर उपदेश देकर अपनी जीवीका कमानी चाहिए। उनका आचार्य बनकर पीठमर्द पदवी हासिल करनी चाहिए।
आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक अमीर-गरीब समुदाय, सम्पन्न अथवा एकांकी सभी लोगों को मौसम संबंधी मनोरंजनों और उत्सवों में भाग लेना चाहिए। इससे भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का मूल उद्देश्य तथा स्वरूप आसानी से समझा जा सकता है।
कामसूत्र की गवाही से जान पड़ता है कि भारतीय संस्कृति तथा साहित्य में असुंदर तथा विद्रोह का भाव कहीं भी नहीं है। भारतीय नागरिक पुनर्जन्म तथा कर्मफल के सिद्धांतों को स्वीकार कर सांसरिक विधान के साथ सामन्जस्य बनाए रखने के लिए कोशिश करता है। वह दुख में भी असंतुष्ट अथवा फिक्रमंद नहीं हुआ करता क्योंकि उसकी मान्यता है कि मनुष्य अपने कामों का फल भोगने के लिए ही जन्म लेता है।
हमारी सभ्यता मनोविनोदों, उत्सवों, नृत्यो-नाटकों को सिर्फ मनोरंजन का साधन ही नहीं मानती बल्कि अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन समझती है। यही वजह है कि वात्स्यायन ने हर व्यक्ति को चाहे वह जिस स्थिति का, जिस वर्ग अथवा रंग का हो, उत्सवों, मनोविनोदों में भाग लेने का सुझाव दिया है।
श्लोक (32)- भुक्तविभवस्तु गुणवान् सकलत्रो वेशे गोष्ठयां च बहुमतस्तदुपजीवी च विटः।।
अर्थ- जो व्यक्ति संपन्न नागरिकों के सभी सुखों का उपभोग कर चुका हो लेकिन किसी वजह हे विभवहीन हो गया हो और सभी नागरक गुणों से संपन्न है, कलावान है, गणिकाओं तथा नागरकों के समाज में लब्धप्रतिष्ठ है, वह वेश्याओं तथा नागरकों के संपर्क से जीविका चलाएं। ऐसा आदमी विट कहलाता है।
श्लोक (33)- एकदेशविद्यस्तु क्रीडनको विश्चास्यश्च विदूषकः। वैहासिको वा।
अर्थ- लेकिन जो लोग किसी कला अथवा विद्या में पूरी हासिल किए हो वह अधूरा कलाकार लोगों के बीच खिलौना बना रहता है। कदाचित वह विश्वस्त हुआ दो विदूषक कहलाएगा अथवा हंसाते रहने की वजह से वैहासिर भी कहा जाता है।
श्लोक (34)- एते वेश्यानां नागरकाणां च मन्त्रिणः सन्धिविग्रहनियुक्ताः
अर्थ- ऐसे लोग वेश्याओं तथा नागरिकों के बीच संधि-विग्रहिक बनते हैं।
श्लोक (35)- तैर्भिक्षुक्यः कलाविदग्धा मुण्डा वृषल्यो वृद्धगणिकाश्च व्याख्याताः।।
अर्थ- विट-विदूषक की तरह कला निपुण भिक्षुकी नायक तथा नायिका के बीच संधि-विग्रहिक बनकर जीवन बिता सकती है।
उपर्युक्त 3 सूत्रों द्वारा आचार्य वात्स्यायन ने पीठमर्द, विट, विदूषक और इन्ही की तरह भिक्षुणी, बांझस्त्री, विधवा, बूढ़ी वेश्या आदि के जीवनयापन का विधान बताया है।
सुख-संपन और निर्धन नागरिकों के इस वर्गीकरण से वात्स्यायन कालीन समाज व्यवस्था का सचित्र परिचय प्राप्त होगा। इसके अंतर्गत कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि उच्च वर्ण के लोग ज्यादा समृद्ध होते थे और नीच वर्ण के लोग कम।
ऐसा लगता है कि समृद्ध होने के बाद श्रेष्ठी अथवा सामन्त पदवी हासिल हो जाती थी, शुद्र पद विलीन हो जाता था। ब्राह्मण सिर्फ वेद पाठी ही नहीं होते थे बल्कि देश-देशान्तर का व्यापार करके श्रेष्ठि भी बन जाते थे। क्षत्रियों की भी बात यही है कि वे सिर्फ राजा या योद्धा ही नहीं होते थे बल्कि उच्चकोटि के व्यवसायी तथा सेठ भी होते थे।
मृत्षकटिक नाटक की गवाही के अंतर्गत जाना जाता है कि चारुदत ब्राह्मण होते हुए भी श्रेष्ठि-चत्वर में वास करता है तथा सभी कलाओं का समादरण करने वाला उत्तम नागरिक है। गरीब हो जाने पर भी वसन्तसेना जैसी अनिन्ध सुंधरी, गणिका तथा सभी नागरिकों के प्रेम तथा श्रद्धा का भाजन बना रहता है।
आचार्य वात्स्यायन द्वारा बताई गई विट की परिभाषा का मनुष्य मृच्छकटिक का एक दूसरा ब्राह्मण है जो विट कहा जाता है। राजा के साले की चापलूसी करता है, गणिकाओं का सम्मान करता है और उन्हे खुश रखता है।
श्लोक (36)- ग्रामवासी च सजातान्विचक्षणान् कौतूहलिकान् प्रोत्साह्या नागरकजनस्य वृत्तं वर्णयञ्श्रद्धां च जनयंस्तदेवानुकुर्वीत। गोष्ठीश्च प्रवर्तयेत्। संगत्या जनमनुरञ्ञयेत। कर्मस च साहाय्येन चानुगृह्णीयात्। उपकारयेच्च। इति नागरकवृत्तम्।।
अर्थ- इसके अंतर्गत गांव के लोग नागरक के वृत्त का वर्णन करते हैं-
अगर नागरक गांव में जीवनयापन करने या किसी दूसरे मकसद को पूरा करने के लिए निवास करता है तो संजातीय, बुद्धिमान तथा जादू, खेल-तमाशा जानने वाले लोगों को रोचक घटनाएं सुनवाकर अपना भक्त बना लें तथा नागरक जीवन बिताने के लिए उन्हे प्रोत्साहित करें।
उनके मनोरंजन के लिए उत्सवों और यात्राओं का आयोजन किया जाए, अपने संपर्क से उन्हें प्रमुदित बनाकर रखें। उनके काम में सहायता प्रदान करें तथा उन पर अनुग्रह करता रहें। यहां पर नागरकवृत्त का प्रकरण समाप्त होता है।
नागरकवृत्त से इस बात का पता चलता जाता है कि उस समय की भारतीय प्रजा, ऐश्वर्य, समृद्धि तथा पौरुष संपन्न थी। सुंदरता तथा सुकुमारता की रक्षा करने में हमेशा जागरुक रहती थी। योग तथा भोग, प्रवृत्ति तथा निवृ्त्ति का सामन्जस्य तथा संतुलन बनाए ऱखने में पूरी तरह काबिल और सावधान थी। उसका अपना भी दृष्टिकोण व जीवन दर्शन था जिसके द्वारा वह इन्द्रियों की वृ्त्ति को पाशविकता की तरफ उन्मुख नहीं होने देती थी।
श्लोक (37)- नात्यंत संस्कृतेनैव नात्यंत देशभाषया। कथां गोष्ठीषु कथयंल्लोके बहुमतो भवेत्।।
अर्थ- इसके अंतर्गत गोष्ठियों में भाषा तथा संभाषण संबंधी नियमों की व्याख्या करते हैं-
सभाओं तथा गोष्ठियों में न सिर्फ संस्कृत में ही बोला जाए और न ही सिर्फ भाषा में। ऐसा करने से वक्ता सर्वमान्य तथा सर्वसम्मानित नहीं हो सकता है।
श्लोक (38)- या गोष्ठी लोकविद्विष्टा या च स्वैरविसर्पिणी. परहिंसात्मिका या च न तामवतरेद्वधः।।
अर्थ- जिस गोष्ठी में जलने वाले लोग रहते हों तथा जहां पर स्वच्छंद कार्यवाही होती हो और दूसरों पर इल्जाम लगाए जाते हो या दूसरों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जाती हो उस गोष्ठी में बुद्धिमान व्यक्ति को नहीं जाना चाहिए।
श्लोक (39)- लोकचित्तानुवर्तिन्या क्रीडामात्रैकाकार्यया। गोष्ठया सहचरन्विद्वांल्लोके सिद्धि नियच्छति।।
अर्थ- जो लोग इस प्रकार की गोष्ठियों से ताल्लुक रखते हों, जो जनरुचि का प्रतिनिधित्व करते हो और जिस जगह पर सिर्फ विनोदों या मनोरंजनों का ही माहौल रहता हो वह व्यक्ति कामयाबी और ख्याति को प्राप्त कर सकता है।
आचार्य वात्स्यायन के भाषा संबंधी विचार बहुजनहिताय है। वह जन समाज के बीच न तो कठोर पाण्डित्य चाहता है और न ही गंवारपन। उनकी भाषा नीति मध्यम वर्ग का अवलंबन करती है। वात्स्यायन द्वारा हजारों साल पहले निर्धारित की हुई भाषानीति आज के भाषा विवाद के लिए एक उपाय है।
आचार्य वात्स्यायन के समय में संस्कृतनिष्ठ, सुशिक्षित अथवा साहित्य की भाषा रही है तथा प्राकृत जनभाषा रही है। संस्कृत के साथ-साथ जनभाषा में भी साहित्य का प्रणयन उस समय होता रहा है।
आचार्य वात्स्यायन ने नियम बताया है कि सभाओं तथा गोष्ठियों में साधारणतयः शाम का ही उपयोग किया जाए जो कि आसान सुबोध होने के साथ ही साहित्यिक गुणों से भी संपन्न हो। गोष्ठियों में भाग लेने, भाषण देने का आयोजन ख्याति तथा लोकप्रियता हासिल करना है।
बुद्धिमान लोगों को इस प्रकार के उत्सवों में जाना चाहिए जो लोकचित्तानु वर्तिनी हों। जहां अपने दिल के बोझ को उतारकर दिल और दिमाग के लिए बौद्धिक खुराक हासिल की जा सके। आनन्ददायक सौहार्दमय तथा स्नेहमय माहौल हो। ऐसे माहौल मे संपन्न हर क्रिया, हर विचार तथा भावना फलवती हो सकती है। इसके साथ ही कामयाबी और ख्याति भी अनुगमन करती है।
श्लोक- इति श्री वात्स्यायनीये कामसूत्रे साधारणे, प्रथमेऽधिकरणे नागरक वृत्तं चतुर्थोऽध्याय।।
रसिकजन के कार्य रसिकजन के कार्य Reviewed by Admin on 4:14 PM Rating: 5

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