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2. विद्या समुदेश प्रकरण

श्लोक-1. धर्मार्थाग्ङविद्याकालाननुपरोधयन् का्मसूत्रं तदग्ङविद्याश्च पुरुपोऽधीयीत 1।।
अर्थ- अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र और इनके अंगभूत शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही पुरुष को कामशास्त्र के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए।

व्याख्या :

मुनि वात्स्यायन ने इस श्लोक में "विद्या" शब्द का उपयोग किया है। धर्मविद्या और उसकी अंगभूत विद्याओं को पढ़ने के साथ कामशास्त्र तथा उसकी अंगभूत विद्याओं को पढ़ने की सलाह दी गयी है।
यह चौदह विद्याओं तथा सात सिद्धांतों पर आधारित है। इन्ही चौदह विद्याओं के विभिन्न प्रकार बाद में विभिन्न शास्त्रों तथा सिद्धांतों के रूप में प्रचलित हुए।
याज्ञवल्यक्य स्मृति के द्वारा चार वेद, छह शास्त्र, मीमांसा, न्याय पुराण तथा धर्मशास्त्र- इन चौदह विद्याओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त पाञ्चरात्र, कापिल, अपरान्तरतम, ब्रहिष्ट, हैरण्यगर्भ, पाशुपात तथा शैव इन सात सिद्धांतों का भी उल्लेख है।
इन चौदह विद्याओं के 70 महातंत्र और 300 शास्त्र हैं। महातंत्र की तुलना में शास्त्र बहुत छोटे और संक्षिप्त होते हैं। यह विद्या विस्तार शिव (विशालाक्ष) ने कहा था। महाभारत में यह लिखा है कि ब्रह्म के तिवर्ग शास्त्र से शिव (विशालाक्ष) ने अर्थ भाग अर्थात अर्थशास्त्र को भिन्न किया था। उस अर्थभाग में विभिन्न विषय थे। बाद में उन्ही के आधार पर विभिन्न ग्रंथ लिखे गये हैं जो निम्न हैं-
1. लोकायव शास्त्र।
2. धनुर्वेद शास्त्र।
3. व्यूह शास्त्र।
4. रथसूत्र।
5. अश्वसूत्र।
6. हस्तिसूत्र।
7. हस्त्वायुर्वेद्।
8. शालिहोत्र।
9. यंत्रसूत्र।
10. वाणिज्य शास्त्र।
11. गंधशास्त्र।
12. कृषिशास्त्र।
13. पाशुपताख्यशास्त्र।
14. गोवैध।
15. वृक्षायुर्वेद।
16. तक्षशास्त्र।
17. मल्लशास्त्र।
18. वास्तुशास्त्र।
19. वाको वाक्य।
20. चित्रशास्त्र।
21. लिपिशास्त्र।
22. मानशास्त्र।
23. धातुशास्त्र।
24. संख्याशास्त्र।
25. हीरकशास्त्र।
26. अदृष्टशास्त्र।
27. तांत्रिक श्रति।
28. शिल्पशास्त्र।
29. मायायोगवेद।
30. माणव विद्या।
31. सूदशास्त्र।
32. द्रव्यशास्त्र।
33. मत्स्यशास्त्र।
34. वायस विद्या।
35. सर्प विद्या।
36. भाष्य ग्रंथ।
37. चौर शास्त्र।
38. मातृतंत्र।
उपर्युक्त दी गयी 38 तरह की विद्याएं हैं। इनमें से अधिकतर जानकारी कौटलीय अर्थशास्त्र में मिलती है।
वेद के छह अंगों में से एक अंग कल्प को माना गया है। कल्प शब्द का अर्थ विधि, नियम तथा न्याय है। ऐसे शास्त्र जिनमें विधि़, नियम तथा न्याय के संक्षिप्त, सारभूत तथा निर्दोष वाक्य समूह रहते हैं उन्हें कल्पसूत्र के नाम से जाना जाता है।
कामसूत्र के तीन भेद हैं- श्रौत, गृह्य और धर्म। श्रौतसूत्रों में यज्ञों के विधान तथा नियम के बारे में वर्णित किया गया है। गृहसूत्रों में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी लौकिक और पारलौकिक कर्तव्यों तथा अनुष्ठानों के बारे में उल्लेख किया गया है। धर्मसूत्रों में अनेक धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक कर्तव्यों और दायित्वों का वर्णन किया गया है।
कामसूत्र के समान ही धर्मशास्त्र भी श्रौत धर्मशास्त्र तथा स्मार्त धर्मशास्त्र- दो भागों में विभाजित है। सभी धर्मशास्त्रों का मूल उद्देश्य कर्मफल में विश्वास, पुनर्जन्म में विश्वास तथा मुक्ति पर आस्था है। इन्हीं तीन बातों का विस्तार जीवन के विभिन्न अंगों तथा उद्देश्यों को लेकर धर्मशास्त्रों में किया गया है।
आचार्य वात्स्यायन का उद्देश्य अर्थशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के इसी व्यापक क्षेत्र का अध्ययन है। इसके साथ ही कामसूत्र और उसके अंगभूतशास्त्र (संगीत शास्त्र) के लिए वह सलाह देता है।
अर्थशास्त्र तथा धर्मशास्त्र की ही तरह कामशास्त्र में भी जीवन के लिए उपयोगी भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। वात्स्यायन के अनुसार अर्थशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के अध्ययन के अलावा कामसूत्र का अध्ययन भी जीवन के लिए उपयोगी होता है।
आचार्य वात्स्यायन ने कामशास्त्र न लिखकर उसके स्थान पर कामसूत्र लिखा है। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार अर्थशास्त्र के क्षेत्र में केवल कौटलीय अर्थशास्त्र ही एक उपलब्ध ग्रंथ है। उसी तरह से कामशास्त्र के क्षेत्र में प्राचीन ग्रंथों का अभाव है जिसके कारण वात्स्यायन का यह कामसूत्र ही विशेष उपयोगी है।
कामसूत्रकार कामसूत्र के साथ-साथ इसके अंगभूतशास्त्र अर्थात संगीत को भी पढ़ने की सलाह देता है। जिस प्रकार कामशास्त्र सृष्टि-रचना का सहायक है। उसी प्रकार से संगीतशास्त्र की नादविद्या भी संसार के रहस्यों को समझने का एक मुख्य साधन है। संगीत के स्वरों से देवता, ऋषि, ग्रह, नक्षत्र, छंद आदि का गहरा संबंध होता है।
वाद्ययंत्रों को संगीत का सहायक माना जाता है। संगीत ब्रह्मनंद का सहोदर माना गया है। अर्थ, धर्म तथा काम को त्रिवर्ग कहा जाता है। यह त्रिवर्ग ही मोक्ष प्राप्ति का साधन होता है। वात्स्यायन के अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, कामशास्त्र तथा संगीत शास्त्र के अध्ययन की सलाह का अर्थ मोक्ष की प्राप्ति समझना चाहिए।


श्लोक-2. प्राग्यौवनात् स्त्री। प्रत्ता च पत्युरभिप्रायात ।।2।।
अर्थ- इन चौदह विद्याओं तथा सात सिद्धांतों का अध्ययन केवल पुरुष को ही नहीं, बल्कि स्त्री को भी करना चाहिए।

व्याख्या : 

युवावस्था से पहले ही स्त्री को अपने पिता के घर में अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, कामशास्त्र तथा संगीतशास्त्र का अध्ययन करना चाहिए। विवाह होने के बाद स्त्री को अपने पति से आज्ञा लेकर ही कामसूत्र का अध्ययन करना चाहिए।
श्लोक-3. योषितां शास्त्रग्रहणस्याभावादनर्थकमिहशास्त्रे स्त्रीशासनामित्याचार्या।।3।।
अर्थ- शास्त्रों का अध्ययन करना स्त्रियों के लिए सही नहीं है। इस सूत्र में बारे में
कुछ आचार्यों के अनुसार स्त्रियों में शास्त्र का भ्रम समझने का अभाव होता है। इसलिए स्त्रियों को कामसूत्र और उसकी अंगभूत विद्याओं का अध्ययन कराना निरर्थक होता है।
श्लोक -4. प्रयोगग्रहणं त्वासाम। प्रयोगस्य च शास्त्रपूर्वककत्वादिति।।4।।
अर्थ- आचार्य वात्स्य़ायन जी कहते हैं कि स्त्रियों को कामसूत्र के सिद्धांतों के क्रियात्मक प्रयोग का अधिकार तो है ही तथा क्रियात्मक प्रयोग के बिना शास्त्र के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती है। इसलिए स्त्रिय़ों के लिए कामसूत्र का अध्ययन करना अनुचित होता है।
सेक्स क्रिया का उद्देश्य केवल वासनाओं की ही तृप्ति ही नहीं है, बल्कि इससे भी अधिक इसका सामाजिक और आध्यात्मिक उद्देश्य होता है। यह सच है कि स्त्रियों में सेक्स की स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है लेकिन यह प्रवृत्ति तो सभी जीवधारियों में होती है। पशु-पक्षी, जलीय प्राणी आदि सभी जीव सेक्स क्रियाएं करते हैं। मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में एक ही अंतर होता है वह है विवेक का। यदि मनुष्य भी विवेकशून्य होकर सेक्स क्रिया करने लगे तो उसमें और पशुओं में कोई भी अंतर नहीं रह जाता है।
मनुष्य और अन्य जीवधारियों के बीच के इसी अंतर को दूर करने के लिए तथा काम के चरम उद्देश्य की पूर्ति के लिए कामशास्त्र की शिक्षा स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान रूप से आवश्यक होती है। सेक्स क्रिया के समय जब अगर-मगर की स्थिति उत्पन्न होती है तो उस समय कामसूत्र की शिक्षा ही उपयोग में आती है।
तस्माच्छांस्त्र प्रमाणन्ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
अर्थ- इस प्रकार की दुविधा में शास्त्र ही सही मार्ग दिखाता है। जिस स्त्री को कामशास्त्र अर्थात सेक्स संबंधी संपूर्ण जानकारी होती है उस स्त्री को अपने कौर्मावस्था में या दाम्पत्य जीवन में उचित और अनुचित का विचार करने में आसानी होती है। ऐसी स्त्री कभी-भी दुविधा में नहीं फंस सकती है।
मीमांसा दर्शन के अनुसार जिस प्रकार विद्युत शक्ति में आकर्षण और विकर्षण की शक्ति होती है लेकिन यदि दोनों को परस्पर मिला दें तो प्रकाश तथा गति संचालित होती है। उसी प्रकार पुरुष तथा स्त्री के परस्पर सहयोग से सृष्टि का संचालन होता है। यदि दोनों अलग-अलग होते हैं तो निष्क्रिय बने रहते हैं।
कामशास्त्र का यही उद्देश्य है कि वह स्त्री तथा पुरुष को परस्पर मिलाकरके मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बना दें और वह स्त्री तथा पुरुष की की अनुचित क्रियाओं, पाशुविक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करके दोनों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति में योग दे तथा दोनों को परस्पर मिला करके उनकी पूर्णता का आभास करा दे।
स्त्री तथा पुरुष दोनों में कामसूत्र के अध्ययन के द्वारा ज्ञान प्राप्ति से मधुर संबंध स्थापित होते हैं। इससे उनके मन में पवित्रता बनी रहती है। जिससे सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन की सुव्यवस्था, सुख़, स्वास्थ्य तथा शांति बनी रहती है।
इसके अतिरिक्त स्त्री तथा पुरुषों में मौखिक भेद होने से दोनों की प्रकृति तथा प्रवृत्ति में भी अंतर होता है। कामशास्त्र के अध्ययन के द्वारा स्त्री को पुरुष की तथा पुरुष को स्त्री की प्रकृति के बारे संपूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार वे दोनों अलग होते हुए एक-दूसरे में पानी की तरह मिल जाते हैं।
वात्स्यायन के अनुसार कामशास्त्र का अध्ययन स्त्री के लिए बहुत ही आवश्यक है।
श्लोक-5. तत्र केवलमिहैब। सर्वत्र हि लोके कतिचिदेव शास्त्रज्ञः। सर्वजनविषयश्स प्रयोगः।।5।।
अर्थ- इसके अंतर्गत शास्त्र के परोक्ष प्रभाव को विभिन्न उदाहरणों द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं।
कामशास्त्र के लिए यह बात नहीं है, बल्कि संसार में सभी शास्त्रों की संख्या कम है तथा शास्त्रों के बताए हुए प्रयोगों के बारे में सभी लोगों को जानकारी है।
श्लोक -6. प्रयोगस्य च दूरस्थमपि शास्त्रमेव हेतु।।6।।
अर्थ- तथा दूर होते हुए भी प्रयोग का हेतु शास्त्र ही है।
श्लोक -7. अस्ति व्याकरणमित्यवैयाकरण अपि याज्ञिका ऊहं क्रतुषु।।7।।
अर्थ- व्याकरण शास्त्र के होते हुए भी अवैयाकरणा याज्ञिक यज्ञों में विकृतियों का उचित प्रयोग करते हैं।
श्लोक -8. अस्ति ज्यौतिषमिति पुण्याहेषु कर्म कुर्वते।।8।।
अर्थ- ज्योतिष शास्त्र के होते भी ज्योतिष न जानने वाले लोग व्रत पर्वों में संपन्न होने वाले विशेष कार्य़ों को किया करते हैं।
श्लोक -9. तथाश्वारोहा और गजारोहाश्वाश्वान् गजांश्वानधिगतशास्त्रा अपि विनयन्ते।।9।।
अर्थ- तथा महावत और घुड़सवार हस्तिशास्त्र तथा शालिहोत्र का अध्ययन किये बगैर साथियों तथा घोड़ों को वश में कर लेते हैं।
श्लोक-10. तथास्ति राजेति दूरस्था अपि जनपदा न मर्यादामतिवर्तन्ते तद्वदेतत।।10।।
अर्थ- जिस प्रकार दंड देने वाले राजा की उपस्थिति मात्र से प्रजा राज्य के नियमों का उल्लंघन नहीं करती है। उसी प्रकार यह कामशास्त्र है जिसका अध्ययन किए बगैर ही लोग उसका प्रयोग करते हैं।
श्लोक-11. सन्तपि खलु शास्त्रप्रहतबुद्धयो गणिका राजपुत्र्यो महामादुहितरश्च।।11।।
अर्थ- स्त्रियों में शास्त्र को समझने की अक्ल नहीं होती है। इस आक्षेप का निराकरण करते हुए सूत्रकार का मत है-
इस प्रकार की मणिकाएं, राजपुत्रियां तथा मंत्रियों की पुत्रियां हैं जोकि सिर्फ प्रयोगों में ही नहीं बल्कि कामशास्त्र तथा संगीतशात्र में भी कुशल और निपुण होती हैं।
राजपुत्रियों तथा मणिकाओं के कामशास्त्र तथा उसके अंगभूत संगीतशास्त्र की व्यावहारिक तथा तात्विक शिक्षा प्रदान करने की भारतीय प्रणाली बहुत ही प्राचीन है। भारतीय समाज में वेश्याओं का सम्मान उनके रूप, आयु तथा आकर्षण के साथ ही उनकी विद्वता तथा योग्यता आदि कारणों से होता है।
बौद्ध जातकों की "अम्बपाली" तथा भास के नाटक दरिद्र चारुदत्त की "बसंतसेना" रूप तथा गुण में आदर्श स्त्री मानी जाती थी। उनके इसी रूप तथा गुण के कारण बड़े-बड़े राजा-महाराजा और साधु-संत उनके पास जाया करते थे।
राजपुत्रियों में उज्जयिनी के राजा प्रद्योत-वण्डमहासेन की पुत्री वासवदत्ता बहुत अधिक सुंदर और कला में कुशल थी। राजा प्रद्योत-वण्डमहासेन ने कौशाम्बी के राजा उदायन को छल करके इसलिए बंदी बनाया था ताकि वह उसकी पुत्री को वीणा बजाने की अद्वितीय कला सिखा दे।
प्राचीन काल में सामाजिक शिष्टाचार तथा कला की शिक्षा प्राप्त करने के लिए राजा अपने पुत्र और पुत्रियों को मणिकाओं के पास भेजते थे।
भारतीय समाज में विद्वान और रूपवती गणिकाएं आदरणीय ही नहीं बल्कि मंगल सामग्री भी मानी जाती थी। इसी कारण से उन्हें मंगलामुखी के नाम से भी जाना जाता है। ज्योतिष के अनुसार यात्रा के समय गणिकाओं का दर्शन मंगलसूचक माना जाता है। किसी भी यज्ञ के होने पर ऋषि-मुनि गणिकाओं को भी बुलाते थे।
भारतीय समाज में गणिकाएं एक प्रमुख अंग मानी जाती हैं। शासन और जनता दोनों के द्वारा गणिकाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इस प्रकार की गणिकाएं और ललित कला तथा संगीत कला की जानकारी रखने वाले व्यक्ति बड़े-बड़े लोगों के संतानों को शिक्षा देने का कार्य करते हैं।
श्लोक -12. तस्माद्वैसिकाञ्जनाद्रहसि प्रयोगाञ्छास्त्रमेकदेशं वा स्त्री गृह्वीयात।।12।।
अर्थ- इस कारण से स्त्री को एकांत स्थान पर सभी प्रयोगों की, कामशास्त्र की, संगीतशास्त्र की और इनके आवश्यक अंगों की शिक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए।
श्लोक -13. अभ्यासप्रयोज्यांश्च चातुःषष्टिकान् योगान् कन्या रहस्येकाकि-न्यभसेत।।13।।
अर्थ- अभ्यास के द्वारा सफल होने वाली चौसठ कलाओं के प्रयोगों का अभ्यास कन्या को किसी एकांत स्थान पर करना चाहिए।
श्लोक -14. आचार्यास्तु कन्यानां प्रवृत्तपुरुषसंप्रयोगा सहसंप्रवृद्धा धात्रेयिका। तथाभूता वा निरत्ययसम्भाषणा सखी। सवयाश्च मातृष्वसा। विस्त्रब्धा तत्स्थानीया वृद्धदासी। पूर्वसंसृष्टा वा भिक्षुकी। स्वसा च विश्वास च विश्वास- प्रयोगात।।14।।
अर्थ-
विश्वस्त स्त्री-शिक्षिका का निर्देश करते हैं-
निम्नलिखित 6 प्रकार की आचार्याओं में से कोई एक, कन्याओं की आचार्य हो सकती है।
1. पुरुष के साथ सेक्स का अनुभव प्राप्त कर चुकी हो ऐसी, साथ में पली-पोसी खेली हुई धाय की पुत्री।
2. साफ दिल की ऐसी सखी या सहेली जो सेक्स का अनुभव प्राप्त कर चुकी हो।
3. अपने समान उम्र की मौसी।
4. मौसी के ही समान विश्वासपात्र बूढ़ी दासी।
5. अपनी बड़ी बहन।
6. परिवार, शील स्वभाव से पहले से परिचित, भिक्षुणी- संयासिनी।
पुरुषों को कामशास्त्र की शिक्षा देने के लिए आचार्य तथा शिक्षक आसानी से मिल जाते हैं लेकिन स्त्रियों को कामशास्त्र की शिक्षा देने के लिए आचार्य तथा शिक्षक मुश्किल से उपलब्ध हो पाते हैं। इसीलिए आचार्य वातस्यायन ने उपरोक्त 6 प्रकार की औरतों में किसी एक औरत से कामशास्त्र की शिक्षा लेने की सलाह दी है।
कामशास्त्र की शिक्षा के लिए इस प्रकार के निर्वाचन में विश्वास, आत्मीयता तथा पवित्रता निहित है। इस प्रकार की औरतो को सीखने और सिखाने में किसी भी प्रकार का शर्म या संकोच नहीं होता है। कामसूत्र के शास्त्रकारों ने उपरोक्त 6 प्रकार की आचार्यों का चुनाव कामशास्त्र की 64 कलाओं की शिक्षा के लिए किया है। इन 64 कलाओं की शिक्षा के लिए निरंतर अभ्यास करने की आवश्यकता होती है।
इसके अलावा कामसूत्र के शास्त्रकारों ने यह भी सलाह दी है कि यदि किसी कारणवश सभी 64 कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई योग्य आचार्य न मिल सके, तो जितना भी समय मिले उतने ही में और आधी, तिहाई, चौथाई कलाओं को जानने वाली जो भी आचार्य मिल सके उससे कामसूत्र की कलाएं सीख लेनी चाहिए।


श्लोक -15. गीतम्1, वाद्यम्2, नृत्यम्3, आलेख्यम्4, विशेषकच्छेद्यम्5, तण्डुलकुसुमवलिविकाराः6, पुष्पास्तरणम्7, दशनवसनाड्गरागः8, मणिभूमिकाकर्म9, शयनकचनम्10, उदकवाद्यम्11, उदकाघातः12, चित्राश्च13, योगाः,माल्यग्रथनविकल्पाः14, शेखरकापीडयोजनम्15, नेपथ्यप्रयोगाः16, कर्णपत्रभंगा17, गन्धयुक्तिः18, भूषणयोजनम्19, ऐन्द्रजालाः20, कौचुमारश्च योगाः21, हस्तलाघवम्22, विचित्रशाकयूषक्ष्यविकारक्रिया23, पानकरसरागासवयोजनम24, सूचीवानकर्माणि25, सूत्रक्रीड़ा26, वीणाडमरुवाद्यानि27, प्रहेलिका28, प्रतिमाला29, दुर्वाचकयोगाः30, पुस्तकवाचनम्31, नाटकाख्यायिकादर्शनम्32, काव्यसमस्यापूरणम्33, पट्टिकावाननेत्रविकल्पाः34, तक्षकर्माणि35, तक्षणम्36, वास्तुविद्या37, रूप्यपरीक्षा38, धातुवादः39, मणिरागाकरज्ञानम्40, वृक्षायुर्वेदयोगाः41, मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः42, सुकसारिकाप्रलापनम्43, उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलम44, अक्षरमुष्टिकाकथनम्45, म्लेच्छितविकल्पाः46, देशभाषाविज्ञानम्47, पुष्पशकटिका48, निमित्तज्ञानम्49, यंत्रमातृका50, धारणमातृका51, सम्पाठय्म्52, मानसी काव्यक्रिया53, अधिधानकाशः54, छंदोज्ञानम्55, क्रियाकल्पः56, छलितकयोगाः57, वस्त्रगोपनानि58, द्यूतविशेषः59, आकर्षक्रीडा60, बालक्रीडनकानि61, वैनयिकीनाम्62, वैजयिकीनाम्63, व्यायामिकीना64, च विद्यानां, इति चतुःषष्टिरंगविद्याः। कामसूत्रस्यावयावयविन्यः।।15।।

अर्थ- इसके अंतर्गत आपको उपायभूत 64 कलाओं के नाम बताये जा रहे हैं-
1. गीतम- गाना
2. वाद्यम- बाजा बजाना
3. नृत्यम्- नाचना
4. आलेख्यम्- चित्रकारी
5. विशेषकच्छेद्यम्- भोजन के पत्तों को तिलक के आकार में काटना।
6. ताण्डुलकुसुमवलिविकाराः- पूजन के लिए चावल तथा रंग-बिरंगे फूलों को सजाना।
7. पुष्पास्तरणम्- घर अथवा कमरों को फूलो से सजाना।
8. दशनवसनाड्गरागः कपड़ों, शरीर और दांतों पर रंग चढ़ाना।
9. मणिभूमिका कर्म- फर्श पर मणियों को बिछाना।
10. शयनकचनम्- शैया की रचना।
11. उदकावाद्यम्- पानी को इस प्रकार बजाना कि उससे मुरजनाग के बाजे की ध्वनि निकले।
12. उदकाघात- जल क्रीड़ा करते समय कलात्मक ढंग से छींटे मारना।
13. चित्रयोगा- अनेक औषधियों, तंत्रों तथा मंत्रों का प्रयोग करना।
14. माल्यग्रथनविकल्पा- विभिन्न प्रकार से मालाएं गूथना।
15. शेखर कापीड योजनम्- आपीठकं तथा शेखरक नाम के सिर के आभूषणों को शरीर के सही अंगों पर धारण करना।
16. नेपथ्यप्रयोगाः- अपने को या दूसरे को सुंदर कपड़े पहनाना।
17. कर्णपत्रभंगः - शंख तथा हाथीदांत से विभिन्न आभूषणों को बनाना।
18. गन्धयुक्तिः- विभिन्न द्रव्यों को मिलाकर सुगंध तैयार करना।
19. भूषणयोजनम्- आभूषणों में मणियां जड़ना।
20. ऐन्द्रजालायोगः- इन्द्रजाल की क्रीणाएं करना।
21. कौचुमारश्च योगाः- कुचुमार तंत्र में बताए गये बाजीकरण प्रयोग सौंदर्य वृद्धि के प्रयोग।
22. हस्तलाघवम- हाथ की सफाई।
23. विचित्रशाकयूषक्ष्यविकारक्रिया- विभिन्न प्रकार की साग-सब्जियां तथा भोजन बनाने की कला।
24. पानकरसरागासवयोजनम- पेय पदार्थों का बनाने का गुण।
25. सूचीवानकर्माणि- जाली बुनना, पिरोना और सीना।
26. सूत्रक्रीड़ा- मकानों, पशु-पक्षियों तथा मंदिरों के चित्र हाथ के सूत से बनाना।
27. वीणाडमरुवाद्यानि- वीणा, डमरु तथा अन्य बाजे बजाना।
28. प्रहेलिका- पहेलियों को बूझना।
29. प्रतिमाला- अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता का कौशल।
30. दुर्वाचकयोग- ऐसे श्लोक कहना जिनके उच्चारण तथा अर्थ दोनों कठिन हो।
31. पुस्तकवाचनम- किताब पढ़ने की कला।
32. नाटकाख्यायिकादर्शनम- नाटकों तथा ऐतिहासिक कथाओं के बारे में जानकारी।
33. काव्यसमस्यापूरणम- कविताओं के द्वारा समस्यापूर्ति।
34.पट्टिकावाननेत्रविकल्पाः- बेंत और सरकंडे आदि की वस्तुएं बनाना।
35. तक्षकर्माणि- सोने-चांदी के गहनों तथा बर्तनों पर विभिन्न प्रकार की नक्काशी।
36. तक्षणम- बढ़ईगीरी।
37. वास्तुविद्या- घर का निर्माण करना।
38. रूप्यपरीक्षा- मणियों तथा रत्नों की परीक्षा।
39. धातुवाद- धातुओं को मिलाना तथा उनका शोधन करना।
40.मणिरागाकरज्ञानम- मणियों को रंगना तथा उन्हें खानों से निकालना।
41.वृक्षायुर्वेदयोगा- पेड़ों तथा लताओं की चिकित्सा, उन्हें छोटा और बड़ा बनाने की कला।
42.मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः- भेड़ा, मुर्गा तथा लावको को लड़ाना।
43. सुकसारिकाप्रलापनम- तोता-मैना को पढ़ाना।
44. उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलम- शरीर तथा सिर की मालिश करने की कला।
45.अक्षरमुष्टिकाकथनम- सांकेतिक अक्षरों के अर्थ की जानकारी प्राप्त कर लेना।
46. म्लेच्छितविकल्पा- गुप्त भाषा विज्ञान।
47. देशभाषाविज्ञानम- विभिन्न देशों की भाषाओं की जानकारी।
48. पुष्पशकटिका- फूलों से रथ, गाड़ी आदि बनवाना।
49. निमित्तज्ञानम- शकुन-विचार।
50. यंत्रमातृका- स्वयं चालित यंत्रों को बनाना।
51. धारणमातृका- स्मरण शक्ति बढ़ाने की कला।
52. सम्पाठय्म- किसी सुने हुए अथवा पढे़ हुए श्लोक को ज्यौ का त्यौं दोहराना।
53. मानसी काव्यक्रिया- विक्षिप्त अक्षरों से श्लोक बनाना।
54. अधिधानकोश - शब्दकोषों की जानकारी।
55.छंदोज्ञानम- छंदों के बारे में जानकारी।
56. क्रियाकल्प- काव्यालंकार की जानकारी।
57. छलितकयोगा- बहुरूपियापन।
58.वस्त्रगोपनानि- छोटे कपड़े इस प्रकार पहने कि वह बड़ा दिखाई दे तथा बड़े कपड़े इस प्रकार पहने कि वह छोटा दिखाई दे।
59. द्यूतविशेषः- विभिन्न प्रकार की द्यूत क्रियाओं की कला।
60. आकर्षक्रीडा- पासा खेलना।
61. बालक्रीडनकानिः- बच्चों के विभिन्न खेलों की जानकारी।
62.वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम- विजय सिखाने वाली विद्याएं, आचार शास्त्र।
63.वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम- विजय दिलाने वाली विद्याएं तथा आचार्य कौटिल्य का अर्थशास्त्र।
64. व्यायामिकीना विद्यानां ज्ञानम - व्यायाम के बारे में जानकारी।
कामसूत्र की अंगभूत ये 64 विद्याएं हैं।
आचार्य वात्स्यायन ने यहां पर कलाओं का वर्गीकरण नहीं बल्कि उनका परिगणन किया है। कलाओं की गणना के बारे में सबसे अधिक प्रचलित तथा प्रसिद्ध संख्या 64 है। तंत्रग्रंथों और शुक्रनीति में भी कलाओं की संख्या 64 ही है। कहीं-कहीं इन कलाओं का उल्लेख सोलह, बत्तीस, चौसठ तथा चौसठ से अधिक नाम से भी मिलता है।
प्रसिद्ध ग्रंथ ललित विस्तार में कामकला के रूप में 64 नाम दिये गये हैं तथा कामकला के रूप में 23 नाम हैं। प्रबंधकोष के अंतर्गत इसकी संख्या 72 दी गयी है। इसके अलावा कला विलास पुस्तक में सबसे अधिक कलाओं के बारे में जानकारी दी गयी है, जिनमें से 32 धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति, 64 लोकोपयोगी कलाएं तथा 32 मात्सर्य शील प्रभाव तथा मान की है।
लोगों को आकर्षित करने की 10 भेषज कलाएं, 64 कलाएं वेश्याओं की तथा 16 कायस्थों की कलाएं हैं। इसके अतिरिक्त गणकों की कलाओं तथा 100 सार कलाओं का वर्णन है।
अन्य कामशास्त्रियों तथा आचार्य वात्स्यायन द्वारा बतायी गयी कलाओं पर ध्यान देने से यह जानकारी प्राप्त होती है कि उस समय के आचार्य किसी भी विषय अथवा कार्य़ में निहित कौशल को कला के अंतर्गत रखते हैं। आमतौर पर ललित तथा उपयोगी दोनों प्रकार की कलाएं कलाकोटि में परिगणित होती हैं।
कला शब्द का सबसे पहले प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। विभिन्न उपनिषदों में भी कला शब्द का प्रयोग मिलता है। इसके अलावा वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्वेद), सांख्यायनब्राह्मण, तैत्तरीय, शतपथ ब्राह्मण, षडविंशब्राह्मण और आरण्यक आदि वैदिक ग्रंथों में भी कला शब्द का प्रयोग मिलता है। भरत के नाट्य शास्त्र से पहले कला शब्द का अर्थ ललित कला में प्रयोग नहीं हुआ था। कला शब्द का वर्तमान अर्थ जो है उस अर्थ का द्योतक शब्द शास्त्र से पहले शिल्प शब्द था।
संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रंथों में शिल्प शब्द कला के अर्थ में प्रयोग किया जाता रहा है। पाणिनी द्वारा रचित अष्टाध्यायी तथा बौद्ध ग्रंथों के अंतर्गत शिल्प शब्द उपयोगी तथा ललित दोनों प्रकार की कलाओं के लिए होता है।
आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र की जिन 64 कलाओं का वर्णन किया है। उन्हें कामसूत्र की अंगभूत विद्या कहते हैं।
आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र में जिन 64 कलाओं का वर्णन किया है। उन सभी कलाओं के नाम का उल्लेख यजुर्वेद के तीसवें अध्याय में किया गया है।
यजुर्वेद के इस अध्याय में 22 मंत्रों का उल्लेख किया गया है जिनमें से चौथे मंत्र से लेकर बाइसवें मंत्र तक उन्हीं कलाओं तथा कलाकारों के बारे में जानकारी दी गयी है।


श्लोक-16. पान्चालिकी च चतुःषष्टिरपरा। तस्याः प्रयोगानन्ववेत्य सांप्रयोगिके वक्ष्यामः।। कामस्य तदात्मकत्वात।।16।।
अर्थ- पहले वर्णित 64 कलाओं से भिन्न पांचाल देश की 64 कलाएं हैं। वे पांचाली कलाएं कामात्मक हैं, इसलिए उनका वर्णन आगे साम्प्रयोजिक अधिकरण में किय़ा गया है।
श्लोक-17. आभिरभ्युच्छ्रिता वेश्या शीलरूपगुणान्विता। लभते गणिकाशब्दं स्थानं च जनसंसदि।।17।।
अर्थ- गुणशील तथा रूप संपन्न वेश्या इन कलाओं के द्वारा उत्कर्ष प्राप्त कर गणिक का पद प्राप्त करती है और समाज में आदर प्राप्त करती है।
श्लोक-18. पूजिता या सदा राज्ञा गुणवद्धिश्च संस्तुता। प्रार्थनीयाभिगम्या च लक्ष्यभूता च जायते।।18।।
अर्थ- इन गणिकाओं का सम्मान राजा करता है, उसकी प्रशंसा गुणवान लोगों के द्वारा होती है। आम लोग उससे कलाएं सीखने के लिए प्रार्थना करते हैं। इस प्रकार से वह सभी का केन्द्र विन्दु बन जाती है।
श्लोक-19. योगज्ञा राजपुत्री च महामात्रसुता तथा। सहस्त्रान्तःपुरमपि स्वनशे कुरुते पतिम्।।19।।
अर्थ- राजाओं और मंत्रियों की जो पुत्रियां कामसूत्र की 64 कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लेती हैं। वे हजारों स्त्रियों से सेक्स करने की क्षमता रखने वाले पुरुष को भी वश में कर लेती हैं।
श्लोक-20. तथा पतियोग च व्यसनं दारुणा गता। देशोन्तरेऽपि विद्याभिः सा सुखेनैव जीवति।।20।।
अर्थ- ऐसी स्त्रियां किसी कारणवश पति से विमुक्त होने पर या किसी संकट में फंस जाने पर उसे अंजान जगह पर जाना पड़े तो वह अपनी कामसूत्र की 64 कलाओं के द्वारा अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर सकती है।
श्लोक-21. नरः कलासु कुशलो वाचालश्चाटुकारकः। असंस्तुतोऽपि नारीणां चित्तमाश्चेव चिन्दति।।21।।
अर्थ- ऐसी स्त्रियों की कला की विशेषता बताने के बाद पुरुषों के गुणों के बारे में बताया जा रहा है। बातचीत करने में निपुण, चाटुकार पुरुष यदि कुशल कलाकार हो तो अपने से घृणा करने वाली स्त्रियों का मन भी आकर्षित कर लेता है।
श्लोक-22. कलानां ग्रहणादेव सौभाग्यमुपजायते। देशकालौ त्वपेक्ष्यासां प्रयोगः संभवेत्र वा।।22।।
अर्थ- कलाओं की जानकारी प्राप्त कर लेने से ही सौभाग्य जागृत हो जाता है लेकिन देश तथा समय प्रतिकूल न हो तो इन कलाओं के प्रयोगों की सफलता में आशंका हो जाती है।
"इति श्री वात्स्यायनीये कामसूत्रे साधारणे प्रथमेऽधिकरणे विद्या समुद्देशस्ववीयोऽध्यायः"


श्लोक-1. धर्मार्थाग्ङविद्याकालाननुपरोधयन् का्मसूत्रं तदग्ङविद्याश्च पुरुपोऽधीयीत 1।।
अर्थ- अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र और इनके अंगभूत शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही पुरुष को कामशास्त्र के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए।
व्याख्या :
मुनि वात्स्यायन ने इस श्लोक में "विद्या" शब्द का उपयोग किया है। धर्मविद्या और उसकी अंगभूत विद्याओं को पढ़ने के साथ कामशास्त्र तथा उसकी अंगभूत विद्याओं को पढ़ने की सलाह दी गयी है।
यह चौदह विद्याओं तथा सात सिद्धांतों पर आधारित है। इन्ही चौदह विद्याओं के विभिन्न प्रकार बाद में विभिन्न शास्त्रों तथा सिद्धांतों के रूप में प्रचलित हुए।
याज्ञवल्यक्य स्मृति के द्वारा चार वेद, छह शास्त्र, मीमांसा, न्याय पुराण तथा धर्मशास्त्र- इन चौदह विद्याओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त पाञ्चरात्र, कापिल, अपरान्तरतम, ब्रहिष्ट, हैरण्यगर्भ, पाशुपात तथा शैव इन सात सिद्धांतों का भी उल्लेख है।
इन चौदह विद्याओं के 70 महातंत्र और 300 शास्त्र हैं। महातंत्र की तुलना में शास्त्र बहुत छोटे और संक्षिप्त होते हैं। यह विद्या विस्तार शिव (विशालाक्ष) ने कहा था। महाभारत में यह लिखा है कि ब्रह्म के तिवर्ग शास्त्र से शिव (विशालाक्ष) ने अर्थ भाग अर्थात अर्थशास्त्र को भिन्न किया था। उस अर्थभाग में विभिन्न विषय थे। बाद में उन्ही के आधार पर विभिन्न ग्रंथ लिखे गये हैं जो निम्न हैं-
1. लोकायव शास्त्र।
2. धनुर्वेद शास्त्र।
3. व्यूह शास्त्र।
4. रथसूत्र।
5. अश्वसूत्र।
6. हस्तिसूत्र।
7. हस्त्वायुर्वेद्।
8. शालिहोत्र।
9. यंत्रसूत्र।
10. वाणिज्य शास्त्र।
11. गंधशास्त्र।
12. कृषिशास्त्र।
13. पाशुपताख्यशास्त्र।
14. गोवैध।
15. वृक्षायुर्वेद।
16. तक्षशास्त्र।
17. मल्लशास्त्र।
18. वास्तुशास्त्र।
19. वाको वाक्य।
20. चित्रशास्त्र।
21. लिपिशास्त्र।
22. मानशास्त्र।
23. धातुशास्त्र।
24. संख्याशास्त्र।
25. हीरकशास्त्र।
26. अदृष्टशास्त्र।
27. तांत्रिक श्रति।
28. शिल्पशास्त्र।
29. मायायोगवेद।
30. माणव विद्या।
31. सूदशास्त्र।
32. द्रव्यशास्त्र।
33. मत्स्यशास्त्र।
34. वायस विद्या।
35. सर्प विद्या।
36. भाष्य ग्रंथ।
37. चौर शास्त्र।
38. मातृतंत्र।
उपर्युक्त दी गयी 38 तरह की विद्याएं हैं। इनमें से अधिकतर जानकारी कौटलीय अर्थशास्त्र में मिलती है।
वेद के छह अंगों में से एक अंग कल्प को माना गया है। कल्प शब्द का अर्थ विधि, नियम तथा न्याय है। ऐसे शास्त्र जिनमें विधि़, नियम तथा न्याय के संक्षिप्त, सारभूत तथा निर्दोष वाक्य समूह रहते हैं उन्हें कल्पसूत्र के नाम से जाना जाता है।
कामसूत्र के तीन भेद हैं- श्रौत, गृह्य और धर्म। श्रौतसूत्रों में यज्ञों के विधान तथा नियम के बारे में वर्णित किया गया है। गृहसूत्रों में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी लौकिक और पारलौकिक कर्तव्यों तथा अनुष्ठानों के बारे में उल्लेख किया गया है। धर्मसूत्रों में अनेक धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक कर्तव्यों और दायित्वों का वर्णन किया गया है।
कामसूत्र के समान ही धर्मशास्त्र भी श्रौत धर्मशास्त्र तथा स्मार्त धर्मशास्त्र- दो भागों में विभाजित है। सभी धर्मशास्त्रों का मूल उद्देश्य कर्मफल में विश्वास, पुनर्जन्म में विश्वास तथा मुक्ति पर आस्था है। इन्हीं तीन बातों का विस्तार जीवन के विभिन्न अंगों तथा उद्देश्यों को लेकर धर्मशास्त्रों में किया गया है।
आचार्य वात्स्यायन का उद्देश्य अर्थशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के इसी व्यापक क्षेत्र का अध्ययन है। इसके साथ ही कामसूत्र और उसके अंगभूतशास्त्र (संगीत शास्त्र) के लिए वह सलाह देता है।
अर्थशास्त्र तथा धर्मशास्त्र की ही तरह कामशास्त्र में भी जीवन के लिए उपयोगी भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। वात्स्यायन के अनुसार अर्थशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के अध्ययन के अलावा कामसूत्र का अध्ययन भी जीवन के लिए उपयोगी होता है।
आचार्य वात्स्यायन ने कामशास्त्र न लिखकर उसके स्थान पर कामसूत्र लिखा है। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार अर्थशास्त्र के क्षेत्र में केवल कौटलीय अर्थशास्त्र ही एक उपलब्ध ग्रंथ है। उसी तरह से कामशास्त्र के क्षेत्र में प्राचीन ग्रंथों का अभाव है जिसके कारण वात्स्यायन का यह कामसूत्र ही विशेष उपयोगी है।
कामसूत्रकार कामसूत्र के साथ-साथ इसके अंगभूतशास्त्र अर्थात संगीत को भी पढ़ने की सलाह देता है। जिस प्रकार कामशास्त्र सृष्टि-रचना का सहायक है। उसी प्रकार से संगीतशास्त्र की नादविद्या भी संसार के रहस्यों को समझने का एक मुख्य साधन है। संगीत के स्वरों से देवता, ऋषि, ग्रह, नक्षत्र, छंद आदि का गहरा संबंध होता है।
वाद्ययंत्रों को संगीत का सहायक माना जाता है। संगीत ब्रह्मनंद का सहोदर माना गया है। अर्थ, धर्म तथा काम को त्रिवर्ग कहा जाता है। यह त्रिवर्ग ही मोक्ष प्राप्ति का साधन होता है। वात्स्यायन के अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, कामशास्त्र तथा संगीत शास्त्र के अध्ययन की सलाह का अर्थ मोक्ष की प्राप्ति समझना चाहिए।


श्लोक-2. प्राग्यौवनात् स्त्री। प्रत्ता च पत्युरभिप्रायात ।।2।।
अर्थ- इन चौदह विद्याओं तथा सात सिद्धांतों का अध्ययन केवल पुरुष को ही नहीं, बल्कि स्त्री को भी करना चाहिए।
व्याख्या :
युवावस्था से पहले ही स्त्री को अपने पिता के घर में अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, कामशास्त्र तथा संगीतशास्त्र का अध्ययन करना चाहिए। विवाह होने के बाद स्त्री को अपने पति से आज्ञा लेकर ही कामसूत्र का अध्ययन करना चाहिए।
श्लोक-3. योषितां शास्त्रग्रहणस्याभावादनर्थकमिहशास्त्रे स्त्रीशासनामित्याचार्या।।3।।
अर्थ- शास्त्रों का अध्ययन करना स्त्रियों के लिए सही नहीं है। इस सूत्र में बारे में
कुछ आचार्यों के अनुसार स्त्रियों में शास्त्र का भ्रम समझने का अभाव होता है। इसलिए स्त्रियों को कामसूत्र और उसकी अंगभूत विद्याओं का अध्ययन कराना निरर्थक होता है।
श्लोक -4. प्रयोगग्रहणं त्वासाम। प्रयोगस्य च शास्त्रपूर्वककत्वादिति।।4।।
अर्थ- आचार्य वात्स्य़ायन जी कहते हैं कि स्त्रियों को कामसूत्र के सिद्धांतों के क्रियात्मक प्रयोग का अधिकार तो है ही तथा क्रियात्मक प्रयोग के बिना शास्त्र के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती है। इसलिए स्त्रिय़ों के लिए कामसूत्र का अध्ययन करना अनुचित होता है।
सेक्स क्रिया का उद्देश्य केवल वासनाओं की ही तृप्ति ही नहीं है, बल्कि इससे भी अधिक इसका सामाजिक और आध्यात्मिक उद्देश्य होता है। यह सच है कि स्त्रियों में सेक्स की स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है लेकिन यह प्रवृत्ति तो सभी जीवधारियों में होती है। पशु-पक्षी, जलीय प्राणी आदि सभी जीव सेक्स क्रियाएं करते हैं। मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में एक ही अंतर होता है वह है विवेक का। यदि मनुष्य भी विवेकशून्य होकर सेक्स क्रिया करने लगे तो उसमें और पशुओं में कोई भी अंतर नहीं रह जाता है।
मनुष्य और अन्य जीवधारियों के बीच के इसी अंतर को दूर करने के लिए तथा काम के चरम उद्देश्य की पूर्ति के लिए कामशास्त्र की शिक्षा स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान रूप से आवश्यक होती है। सेक्स क्रिया के समय जब अगर-मगर की स्थिति उत्पन्न होती है तो उस समय कामसूत्र की शिक्षा ही उपयोग में आती है।
तस्माच्छांस्त्र प्रमाणन्ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
अर्थ- इस प्रकार की दुविधा में शास्त्र ही सही मार्ग दिखाता है। जिस स्त्री को कामशास्त्र अर्थात सेक्स संबंधी संपूर्ण जानकारी होती है उस स्त्री को अपने कौर्मावस्था में या दाम्पत्य जीवन में उचित और अनुचित का विचार करने में आसानी होती है। ऐसी स्त्री कभी-भी दुविधा में नहीं फंस सकती है।
मीमांसा दर्शन के अनुसार जिस प्रकार विद्युत शक्ति में आकर्षण और विकर्षण की शक्ति होती है लेकिन यदि दोनों को परस्पर मिला दें तो प्रकाश तथा गति संचालित होती है। उसी प्रकार पुरुष तथा स्त्री के परस्पर सहयोग से सृष्टि का संचालन होता है। यदि दोनों अलग-अलग होते हैं तो निष्क्रिय बने रहते हैं।
कामशास्त्र का यही उद्देश्य है कि वह स्त्री तथा पुरुष को परस्पर मिलाकरके मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बना दें और वह स्त्री तथा पुरुष की की अनुचित क्रियाओं, पाशुविक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करके दोनों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति में योग दे तथा दोनों को परस्पर मिला करके उनकी पूर्णता का आभास करा दे।
स्त्री तथा पुरुष दोनों में कामसूत्र के अध्ययन के द्वारा ज्ञान प्राप्ति से मधुर संबंध स्थापित होते हैं। इससे उनके मन में पवित्रता बनी रहती है। जिससे सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन की सुव्यवस्था, सुख़, स्वास्थ्य तथा शांति बनी रहती है।
इसके अतिरिक्त स्त्री तथा पुरुषों में मौखिक भेद होने से दोनों की प्रकृति तथा प्रवृत्ति में भी अंतर होता है। कामशास्त्र के अध्ययन के द्वारा स्त्री को पुरुष की तथा पुरुष को स्त्री की प्रकृति के बारे संपूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार वे दोनों अलग होते हुए एक-दूसरे में पानी की तरह मिल जाते हैं।
वात्स्यायन के अनुसार कामशास्त्र का अध्ययन स्त्री के लिए बहुत ही आवश्यक है।
श्लोक-5. तत्र केवलमिहैब। सर्वत्र हि लोके कतिचिदेव शास्त्रज्ञः। सर्वजनविषयश्स प्रयोगः।।5।।
अर्थ- इसके अंतर्गत शास्त्र के परोक्ष प्रभाव को विभिन्न उदाहरणों द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं।
कामशास्त्र के लिए यह बात नहीं है, बल्कि संसार में सभी शास्त्रों की संख्या कम है तथा शास्त्रों के बताए हुए प्रयोगों के बारे में सभी लोगों को जानकारी है।
श्लोक -6. प्रयोगस्य च दूरस्थमपि शास्त्रमेव हेतु।।6।।
अर्थ- तथा दूर होते हुए भी प्रयोग का हेतु शास्त्र ही है।
श्लोक -7. अस्ति व्याकरणमित्यवैयाकरण अपि याज्ञिका ऊहं क्रतुषु।।7।।
अर्थ- व्याकरण शास्त्र के होते हुए भी अवैयाकरणा याज्ञिक यज्ञों में विकृतियों का उचित प्रयोग करते हैं।
श्लोक -8. अस्ति ज्यौतिषमिति पुण्याहेषु कर्म कुर्वते।।8।।
अर्थ- ज्योतिष शास्त्र के होते भी ज्योतिष न जानने वाले लोग व्रत पर्वों में संपन्न होने वाले विशेष कार्य़ों को किया करते हैं।
श्लोक -9. तथाश्वारोहा और गजारोहाश्वाश्वान् गजांश्वानधिगतशास्त्रा अपि विनयन्ते।।9।।
अर्थ- तथा महावत और घुड़सवार हस्तिशास्त्र तथा शालिहोत्र का अध्ययन किये बगैर साथियों तथा घोड़ों को वश में कर लेते हैं।
श्लोक-10. तथास्ति राजेति दूरस्था अपि जनपदा न मर्यादामतिवर्तन्ते तद्वदेतत।।10।।
अर्थ- जिस प्रकार दंड देने वाले राजा की उपस्थिति मात्र से प्रजा राज्य के नियमों का उल्लंघन नहीं करती है। उसी प्रकार यह कामशास्त्र है जिसका अध्ययन किए बगैर ही लोग उसका प्रयोग करते हैं।
श्लोक-11. सन्तपि खलु शास्त्रप्रहतबुद्धयो गणिका राजपुत्र्यो महामादुहितरश्च।।11।।
अर्थ- स्त्रियों में शास्त्र को समझने की अक्ल नहीं होती है। इस आक्षेप का निराकरण करते हुए सूत्रकार का मत है-
इस प्रकार की मणिकाएं, राजपुत्रियां तथा मंत्रियों की पुत्रियां हैं जोकि सिर्फ प्रयोगों में ही नहीं बल्कि कामशास्त्र तथा संगीतशात्र में भी कुशल और निपुण होती हैं।
राजपुत्रियों तथा मणिकाओं के कामशास्त्र तथा उसके अंगभूत संगीतशास्त्र की व्यावहारिक तथा तात्विक शिक्षा प्रदान करने की भारतीय प्रणाली बहुत ही प्राचीन है। भारतीय समाज में वेश्याओं का सम्मान उनके रूप, आयु तथा आकर्षण के साथ ही उनकी विद्वता तथा योग्यता आदि कारणों से होता है।
बौद्ध जातकों की "अम्बपाली" तथा भास के नाटक दरिद्र चारुदत्त की "बसंतसेना" रूप तथा गुण में आदर्श स्त्री मानी जाती थी। उनके इसी रूप तथा गुण के कारण बड़े-बड़े राजा-महाराजा और साधु-संत उनके पास जाया करते थे।
राजपुत्रियों में उज्जयिनी के राजा प्रद्योत-वण्डमहासेन की पुत्री वासवदत्ता बहुत अधिक सुंदर और कला में कुशल थी। राजा प्रद्योत-वण्डमहासेन ने कौशाम्बी के राजा उदायन को छल करके इसलिए बंदी बनाया था ताकि वह उसकी पुत्री को वीणा बजाने की अद्वितीय कला सिखा दे।
प्राचीन काल में सामाजिक शिष्टाचार तथा कला की शिक्षा प्राप्त करने के लिए राजा अपने पुत्र और पुत्रियों को मणिकाओं के पास भेजते थे।
भारतीय समाज में विद्वान और रूपवती गणिकाएं आदरणीय ही नहीं बल्कि मंगल सामग्री भी मानी जाती थी। इसी कारण से उन्हें मंगलामुखी के नाम से भी जाना जाता है। ज्योतिष के अनुसार यात्रा के समय गणिकाओं का दर्शन मंगलसूचक माना जाता है। किसी भी यज्ञ के होने पर ऋषि-मुनि गणिकाओं को भी बुलाते थे।
भारतीय समाज में गणिकाएं एक प्रमुख अंग मानी जाती हैं। शासन और जनता दोनों के द्वारा गणिकाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इस प्रकार की गणिकाएं और ललित कला तथा संगीत कला की जानकारी रखने वाले व्यक्ति बड़े-बड़े लोगों के संतानों को शिक्षा देने का कार्य करते हैं।
श्लोक -12. तस्माद्वैसिकाञ्जनाद्रहसि प्रयोगाञ्छास्त्रमेकदेशं वा स्त्री गृह्वीयात।।12।।
अर्थ- इस कारण से स्त्री को एकांत स्थान पर सभी प्रयोगों की, कामशास्त्र की, संगीतशास्त्र की और इनके आवश्यक अंगों की शिक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए।
श्लोक -13. अभ्यासप्रयोज्यांश्च चातुःषष्टिकान् योगान् कन्या रहस्येकाकि-न्यभसेत।।13।।
अर्थ- अभ्यास के द्वारा सफल होने वाली चौसठ कलाओं के प्रयोगों का अभ्यास कन्या को किसी एकांत स्थान पर करना चाहिए।
श्लोक -14. आचार्यास्तु कन्यानां प्रवृत्तपुरुषसंप्रयोगा सहसंप्रवृद्धा धात्रेयिका। तथाभूता वा निरत्ययसम्भाषणा सखी। सवयाश्च मातृष्वसा। विस्त्रब्धा तत्स्थानीया वृद्धदासी। पूर्वसंसृष्टा वा भिक्षुकी। स्वसा च विश्वास च विश्वास- प्रयोगात।।14।।
अर्थ-
विश्वस्त स्त्री-शिक्षिका का निर्देश करते हैं-
निम्नलिखित 6 प्रकार की आचार्याओं में से कोई एक, कन्याओं की आचार्य हो सकती है।
1. पुरुष के साथ सेक्स का अनुभव प्राप्त कर चुकी हो ऐसी, साथ में पली-पोसी खेली हुई धाय की पुत्री।
2. साफ दिल की ऐसी सखी या सहेली जो सेक्स का अनुभव प्राप्त कर चुकी हो।
3. अपने समान उम्र की मौसी।
4. मौसी के ही समान विश्वासपात्र बूढ़ी दासी।
5. अपनी बड़ी बहन।
6. परिवार, शील स्वभाव से पहले से परिचित, भिक्षुणी- संयासिनी।
पुरुषों को कामशास्त्र की शिक्षा देने के लिए आचार्य तथा शिक्षक आसानी से मिल जाते हैं लेकिन स्त्रियों को कामशास्त्र की शिक्षा देने के लिए आचार्य तथा शिक्षक मुश्किल से उपलब्ध हो पाते हैं। इसीलिए आचार्य वातस्यायन ने उपरोक्त 6 प्रकार की औरतों में किसी एक औरत से कामशास्त्र की शिक्षा लेने की सलाह दी है।
कामशास्त्र की शिक्षा के लिए इस प्रकार के निर्वाचन में विश्वास, आत्मीयता तथा पवित्रता निहित है। इस प्रकार की औरतो को सीखने और सिखाने में किसी भी प्रकार का शर्म या संकोच नहीं होता है। कामसूत्र के शास्त्रकारों ने उपरोक्त 6 प्रकार की आचार्यों का चुनाव कामशास्त्र की 64 कलाओं की शिक्षा के लिए किया है। इन 64 कलाओं की शिक्षा के लिए निरंतर अभ्यास करने की आवश्यकता होती है।
इसके अलावा कामसूत्र के शास्त्रकारों ने यह भी सलाह दी है कि यदि किसी कारणवश सभी 64 कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई योग्य आचार्य न मिल सके, तो जितना भी समय मिले उतने ही में और आधी, तिहाई, चौथाई कलाओं को जानने वाली जो भी आचार्य मिल सके उससे कामसूत्र की कलाएं सीख लेनी चाहिए।


श्लोक -15. गीतम्1, वाद्यम्2, नृत्यम्3, आलेख्यम्4, विशेषकच्छेद्यम्5, तण्डुलकुसुमवलिविकाराः6, पुष्पास्तरणम्7, दशनवसनाड्गरागः8, मणिभूमिकाकर्म9, शयनकचनम्10, उदकवाद्यम्11, उदकाघातः12, चित्राश्च13, योगाः,माल्यग्रथनविकल्पाः14, शेखरकापीडयोजनम्15, नेपथ्यप्रयोगाः16, कर्णपत्रभंगा17, गन्धयुक्तिः18, भूषणयोजनम्19, ऐन्द्रजालाः20, कौचुमारश्च योगाः21, हस्तलाघवम्22, विचित्रशाकयूषक्ष्यविकारक्रिया23, पानकरसरागासवयोजनम24, सूचीवानकर्माणि25, सूत्रक्रीड़ा26, वीणाडमरुवाद्यानि27, प्रहेलिका28, प्रतिमाला29, दुर्वाचकयोगाः30, पुस्तकवाचनम्31, नाटकाख्यायिकादर्शनम्32, काव्यसमस्यापूरणम्33, पट्टिकावाननेत्रविकल्पाः34, तक्षकर्माणि35, तक्षणम्36, वास्तुविद्या37, रूप्यपरीक्षा38, धातुवादः39, मणिरागाकरज्ञानम्40, वृक्षायुर्वेदयोगाः41, मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः42, सुकसारिकाप्रलापनम्43, उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलम44, अक्षरमुष्टिकाकथनम्45, म्लेच्छितविकल्पाः46, देशभाषाविज्ञानम्47, पुष्पशकटिका48, निमित्तज्ञानम्49, यंत्रमातृका50, धारणमातृका51, सम्पाठय्म्52, मानसी काव्यक्रिया53, अधिधानकाशः54, छंदोज्ञानम्55, क्रियाकल्पः56, छलितकयोगाः57, वस्त्रगोपनानि58, द्यूतविशेषः59, आकर्षक्रीडा60, बालक्रीडनकानि61, वैनयिकीनाम्62, वैजयिकीनाम्63, व्यायामिकीना64, च विद्यानां, इति चतुःषष्टिरंगविद्याः। कामसूत्रस्यावयावयविन्यः।।15।।

अर्थ- इसके अंतर्गत आपको उपायभूत 64 कलाओं के नाम बताये जा रहे हैं-
1. गीतम- गाना
2. वाद्यम- बाजा बजाना
3. नृत्यम्- नाचना
4. आलेख्यम्- चित्रकारी
5. विशेषकच्छेद्यम्- भोजन के पत्तों को तिलक के आकार में काटना।
6. ताण्डुलकुसुमवलिविकाराः- पूजन के लिए चावल तथा रंग-बिरंगे फूलों को सजाना।
7. पुष्पास्तरणम्- घर अथवा कमरों को फूलो से सजाना।
8. दशनवसनाड्गरागः कपड़ों, शरीर और दांतों पर रंग चढ़ाना।
9. मणिभूमिका कर्म- फर्श पर मणियों को बिछाना।
10. शयनकचनम्- शैया की रचना।
11. उदकावाद्यम्- पानी को इस प्रकार बजाना कि उससे मुरजनाग के बाजे की ध्वनि निकले।
12. उदकाघात- जल क्रीड़ा करते समय कलात्मक ढंग से छींटे मारना।
13. चित्रयोगा- अनेक औषधियों, तंत्रों तथा मंत्रों का प्रयोग करना।
14. माल्यग्रथनविकल्पा- विभिन्न प्रकार से मालाएं गूथना।
15. शेखर कापीड योजनम्- आपीठकं तथा शेखरक नाम के सिर के आभूषणों को शरीर के सही अंगों पर धारण करना।
16. नेपथ्यप्रयोगाः- अपने को या दूसरे को सुंदर कपड़े पहनाना।
17. कर्णपत्रभंगः - शंख तथा हाथीदांत से विभिन्न आभूषणों को बनाना।
18. गन्धयुक्तिः- विभिन्न द्रव्यों को मिलाकर सुगंध तैयार करना।
19. भूषणयोजनम्- आभूषणों में मणियां जड़ना।
20. ऐन्द्रजालायोगः- इन्द्रजाल की क्रीणाएं करना।
21. कौचुमारश्च योगाः- कुचुमार तंत्र में बताए गये बाजीकरण प्रयोग सौंदर्य वृद्धि के प्रयोग।
22. हस्तलाघवम- हाथ की सफाई।
23. विचित्रशाकयूषक्ष्यविकारक्रिया- विभिन्न प्रकार की साग-सब्जियां तथा भोजन बनाने की कला।
24. पानकरसरागासवयोजनम- पेय पदार्थों का बनाने का गुण।
25. सूचीवानकर्माणि- जाली बुनना, पिरोना और सीना।
26. सूत्रक्रीड़ा- मकानों, पशु-पक्षियों तथा मंदिरों के चित्र हाथ के सूत से बनाना।
27. वीणाडमरुवाद्यानि- वीणा, डमरु तथा अन्य बाजे बजाना।
28. प्रहेलिका- पहेलियों को बूझना।
29. प्रतिमाला- अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता का कौशल।
30. दुर्वाचकयोग- ऐसे श्लोक कहना जिनके उच्चारण तथा अर्थ दोनों कठिन हो।
31. पुस्तकवाचनम- किताब पढ़ने की कला।
32. नाटकाख्यायिकादर्शनम- नाटकों तथा ऐतिहासिक कथाओं के बारे में जानकारी।
33. काव्यसमस्यापूरणम- कविताओं के द्वारा समस्यापूर्ति।
34.पट्टिकावाननेत्रविकल्पाः- बेंत और सरकंडे आदि की वस्तुएं बनाना।
35. तक्षकर्माणि- सोने-चांदी के गहनों तथा बर्तनों पर विभिन्न प्रकार की नक्काशी।
36. तक्षणम- बढ़ईगीरी।
37. वास्तुविद्या- घर का निर्माण करना।
38. रूप्यपरीक्षा- मणियों तथा रत्नों की परीक्षा।
39. धातुवाद- धातुओं को मिलाना तथा उनका शोधन करना।
40.मणिरागाकरज्ञानम- मणियों को रंगना तथा उन्हें खानों से निकालना।
41.वृक्षायुर्वेदयोगा- पेड़ों तथा लताओं की चिकित्सा, उन्हें छोटा और बड़ा बनाने की कला।
42.मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः- भेड़ा, मुर्गा तथा लावको को लड़ाना।
43. सुकसारिकाप्रलापनम- तोता-मैना को पढ़ाना।
44. उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलम- शरीर तथा सिर की मालिश करने की कला।
45.अक्षरमुष्टिकाकथनम- सांकेतिक अक्षरों के अर्थ की जानकारी प्राप्त कर लेना।
46. म्लेच्छितविकल्पा- गुप्त भाषा विज्ञान।
47. देशभाषाविज्ञानम- विभिन्न देशों की भाषाओं की जानकारी।
48. पुष्पशकटिका- फूलों से रथ, गाड़ी आदि बनवाना।
49. निमित्तज्ञानम- शकुन-विचार।
50. यंत्रमातृका- स्वयं चालित यंत्रों को बनाना।
51. धारणमातृका- स्मरण शक्ति बढ़ाने की कला।
52. सम्पाठय्म- किसी सुने हुए अथवा पढे़ हुए श्लोक को ज्यौ का त्यौं दोहराना।
53. मानसी काव्यक्रिया- विक्षिप्त अक्षरों से श्लोक बनाना।
54. अधिधानकोश - शब्दकोषों की जानकारी।
55.छंदोज्ञानम- छंदों के बारे में जानकारी।
56. क्रियाकल्प- काव्यालंकार की जानकारी।
57. छलितकयोगा- बहुरूपियापन।
58.वस्त्रगोपनानि- छोटे कपड़े इस प्रकार पहने कि वह बड़ा दिखाई दे तथा बड़े कपड़े इस प्रकार पहने कि वह छोटा दिखाई दे।
59. द्यूतविशेषः- विभिन्न प्रकार की द्यूत क्रियाओं की कला।
60. आकर्षक्रीडा- पासा खेलना।
61. बालक्रीडनकानिः- बच्चों के विभिन्न खेलों की जानकारी।
62.वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम- विजय सिखाने वाली विद्याएं, आचार शास्त्र।
63.वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम- विजय दिलाने वाली विद्याएं तथा आचार्य कौटिल्य का अर्थशास्त्र।
64. व्यायामिकीना विद्यानां ज्ञानम - व्यायाम के बारे में जानकारी।
कामसूत्र की अंगभूत ये 64 विद्याएं हैं।
आचार्य वात्स्यायन ने यहां पर कलाओं का वर्गीकरण नहीं बल्कि उनका परिगणन किया है। कलाओं की गणना के बारे में सबसे अधिक प्रचलित तथा प्रसिद्ध संख्या 64 है। तंत्रग्रंथों और शुक्रनीति में भी कलाओं की संख्या 64 ही है। कहीं-कहीं इन कलाओं का उल्लेख सोलह, बत्तीस, चौसठ तथा चौसठ से अधिक नाम से भी मिलता है।
प्रसिद्ध ग्रंथ ललित विस्तार में कामकला के रूप में 64 नाम दिये गये हैं तथा कामकला के रूप में 23 नाम हैं। प्रबंधकोष के अंतर्गत इसकी संख्या 72 दी गयी है। इसके अलावा कला विलास पुस्तक में सबसे अधिक कलाओं के बारे में जानकारी दी गयी है, जिनमें से 32 धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति, 64 लोकोपयोगी कलाएं तथा 32 मात्सर्य शील प्रभाव तथा मान की है।
लोगों को आकर्षित करने की 10 भेषज कलाएं, 64 कलाएं वेश्याओं की तथा 16 कायस्थों की कलाएं हैं। इसके अतिरिक्त गणकों की कलाओं तथा 100 सार कलाओं का वर्णन है।
अन्य कामशास्त्रियों तथा आचार्य वात्स्यायन द्वारा बतायी गयी कलाओं पर ध्यान देने से यह जानकारी प्राप्त होती है कि उस समय के आचार्य किसी भी विषय अथवा कार्य़ में निहित कौशल को कला के अंतर्गत रखते हैं। आमतौर पर ललित तथा उपयोगी दोनों प्रकार की कलाएं कलाकोटि में परिगणित होती हैं।
कला शब्द का सबसे पहले प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। विभिन्न उपनिषदों में भी कला शब्द का प्रयोग मिलता है। इसके अलावा वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्वेद), सांख्यायनब्राह्मण, तैत्तरीय, शतपथ ब्राह्मण, षडविंशब्राह्मण और आरण्यक आदि वैदिक ग्रंथों में भी कला शब्द का प्रयोग मिलता है। भरत के नाट्य शास्त्र से पहले कला शब्द का अर्थ ललित कला में प्रयोग नहीं हुआ था। कला शब्द का वर्तमान अर्थ जो है उस अर्थ का द्योतक शब्द शास्त्र से पहले शिल्प शब्द था।
संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रंथों में शिल्प शब्द कला के अर्थ में प्रयोग किया जाता रहा है। पाणिनी द्वारा रचित अष्टाध्यायी तथा बौद्ध ग्रंथों के अंतर्गत शिल्प शब्द उपयोगी तथा ललित दोनों प्रकार की कलाओं के लिए होता है।
आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र की जिन 64 कलाओं का वर्णन किया है। उन्हें कामसूत्र की अंगभूत विद्या कहते हैं।
आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र में जिन 64 कलाओं का वर्णन किया है। उन सभी कलाओं के नाम का उल्लेख यजुर्वेद के तीसवें अध्याय में किया गया है।
यजुर्वेद के इस अध्याय में 22 मंत्रों का उल्लेख किया गया है जिनमें से चौथे मंत्र से लेकर बाइसवें मंत्र तक उन्हीं कलाओं तथा कलाकारों के बारे में जानकारी दी गयी है।


श्लोक-16. पान्चालिकी च चतुःषष्टिरपरा। तस्याः प्रयोगानन्ववेत्य सांप्रयोगिके वक्ष्यामः।। कामस्य तदात्मकत्वात।।16।।
अर्थ- पहले वर्णित 64 कलाओं से भिन्न पांचाल देश की 64 कलाएं हैं। वे पांचाली कलाएं कामात्मक हैं, इसलिए उनका वर्णन आगे साम्प्रयोजिक अधिकरण में किय़ा गया है।
श्लोक-17. आभिरभ्युच्छ्रिता वेश्या शीलरूपगुणान्विता। लभते गणिकाशब्दं स्थानं च जनसंसदि।।17।।
अर्थ- गुणशील तथा रूप संपन्न वेश्या इन कलाओं के द्वारा उत्कर्ष प्राप्त कर गणिक का पद प्राप्त करती है और समाज में आदर प्राप्त करती है।
श्लोक-18. पूजिता या सदा राज्ञा गुणवद्धिश्च संस्तुता। प्रार्थनीयाभिगम्या च लक्ष्यभूता च जायते।।18।।
अर्थ- इन गणिकाओं का सम्मान राजा करता है, उसकी प्रशंसा गुणवान लोगों के द्वारा होती है। आम लोग उससे कलाएं सीखने के लिए प्रार्थना करते हैं। इस प्रकार से वह सभी का केन्द्र विन्दु बन जाती है।
श्लोक-19. योगज्ञा राजपुत्री च महामात्रसुता तथा। सहस्त्रान्तःपुरमपि स्वनशे कुरुते पतिम्।।19।।
अर्थ- राजाओं और मंत्रियों की जो पुत्रियां कामसूत्र की 64 कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लेती हैं। वे हजारों स्त्रियों से सेक्स करने की क्षमता रखने वाले पुरुष को भी वश में कर लेती हैं।
श्लोक-20. तथा पतियोग च व्यसनं दारुणा गता। देशोन्तरेऽपि विद्याभिः सा सुखेनैव जीवति।।20।।
अर्थ- ऐसी स्त्रियां किसी कारणवश पति से विमुक्त होने पर या किसी संकट में फंस जाने पर उसे अंजान जगह पर जाना पड़े तो वह अपनी कामसूत्र की 64 कलाओं के द्वारा अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर सकती है।
श्लोक-21. नरः कलासु कुशलो वाचालश्चाटुकारकः। असंस्तुतोऽपि नारीणां चित्तमाश्चेव चिन्दति।।21।।
अर्थ- ऐसी स्त्रियों की कला की विशेषता बताने के बाद पुरुषों के गुणों के बारे में बताया जा रहा है। बातचीत करने में निपुण, चाटुकार पुरुष यदि कुशल कलाकार हो तो अपने से घृणा करने वाली स्त्रियों का मन भी आकर्षित कर लेता है।
श्लोक-22. कलानां ग्रहणादेव सौभाग्यमुपजायते। देशकालौ त्वपेक्ष्यासां प्रयोगः संभवेत्र वा।।22।।
अर्थ- कलाओं की जानकारी प्राप्त कर लेने से ही सौभाग्य जागृत हो जाता है लेकिन देश तथा समय प्रतिकूल न हो तो इन कलाओं के प्रयोगों की सफलता में आशंका हो जाती है।
"इति श्री वात्स्यायनीये कामसूत्रे साधारणे प्रथमेऽधिकरणे विद्या समुद्देशस्ववीयोऽध्यायः"
2. विद्या समुदेश प्रकरण 2. विद्या समुदेश प्रकरण Reviewed by Admin on 4:35 PM Rating: 5

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