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षष्ठम अध्याय : अन्तः पुरिका वृत प्रकरण

श्लोक (1)- नान्तः पुराणां रक्षणयोगात्पुरुषसंदर्शन विद्यते पत्युश्चैकत्वादनेक-कसाधारमत्वाच्चातृप्तिः। तस्मात्तानि प्रयोगत एव परस्परं रञ्ञयेयुः।।


अर्थ- सुरक्षा को देखते हुए राजाओं के महलों में बहुत ज्यादा सख्त पहरा रहता है ताकि वहां पर कोई दूसरा पुरुष प्रवेश न कर सके। इन महलों में एक राजा की कई रानियां रहती हैं। इसी कारण से राजा सब रानियों की काम-उत्तेजना शांत नहीं कर पाता और वह रानियां आपस में ही समलैंगिकता द्वारा अपनी काम-वासनाओं की पूर्ति करती हैं।

श्लोक (2)- प्रयोगमाह- 

धात्रेयिकां सखीं दासीं वा पुरुषवदलंकृत्याकृतिसंयुक्तैः कन्दमूलफलावयवैर-पद्रव्यैर्वात्माभिप्रायं निवर्तयेयुः।।

अर्थ- रानियां धाय की पुत्री, नौकरानी या अपनी सहेली को पुरुषों की तरह कपड़े आदि पहनाकर बैंगन, मूली या गाजर आदि को नकली लिंग के रूप में बनाकर उन्हें ऊपर लिटाकर नकली प्रकार के संभोग से अपनी काम-उत्तेजना को शांत करती हैं।

श्लोक (3)- पुरुषप्रतिमा अव्यक्तलिंगाश्चधिशयीरन्।।

अर्थ- रानियां ऐसे पुरूषों को जिन्हें दाढ़ी-मूंछ नहीं आई होती, को स्त्रियों के कपड़े पहनाकर अपने पास सुलाती हैं।

श्लोक (4)- राजानञ्ञ कृपाशीला विनापि भावयोगादायोजितापद्रव्या यावदर्थमेकया राज्या वह्वीभिरपि गच्छति। यस्यां तु प्रीतिर्वासक ऋतुर्वा तत्राभिप्रायतः प्रवर्तन्त इति प्राच्योपचाराः।।

अर्थ- राजा अपनी बहुत सी रानियों के साथ बिना इच्छा के ही नकली लिंग लगाकर एक ही रात में संभोग क्रिया करता है। लेकिन जो रानी राजा को बहुत ही प्रिय होती है उनके साथ वह पूरे जोश से और प्राकृतिक संभोग क्रिया करता है।

श्लोक (5)- स्त्रीयोगेणैव पुरुषाणामप्यलब्धवृत्तीनां वियोनिषुविजातिषु स्त्रीप्रतिमासु केबलोपमर्दनाच्चाभिप्रायनिवृत्तिर्व्याख्याता।।

अर्थ- अगर किसी पुरुष को संभोग करने के लिए कोई स्त्री नहीं मिलती तो वह जानवरों जैसे बकरी, कुतिया या घोड़ी के साथ या हस्तमैथुन करके अपनी काम-उत्तेजना को शांत करते हैं।

श्लोक (6)- योषावेषांश्च नागरकान्प्रायेणान्तःपुरिकाः परिचारिकाभिः सह प्रवेशयन्ति।।

अर्थ- नौकरानियों के साथ राजमहल की रानियां नागरकों को भी अक्सर अपने महल में बुला लेती हैं।

श्लोक (7)- तेषामुपावर्तने धात्रेयिकाश्चाभ्यन्तरसंसृष्टा आयतिं दर्शयन्त्यः प्रयतेरन्।।

अर्थ- धाय की पुत्रियां या रानियों के साथ नकली संभोग क्रिया करने वाली उनकी सहेलियां नागरिकों को लालच देकर महल में ले जाती हैं।

श्लोक (8)- सुखप्रवेशितामपसारभूमिं विशालतां वेश्मनः प्रमादं रक्षिणामनित्यतां परिजनस्य वर्णयेयुः।।

अर्थ- वह उन नागरकों को रानी के पास महल में ले जाने के लिए पूरी तरह से विश्वास दिलाती है कि इस वक्त महल में कोई नहीं है, महल में पहुंचने का एक सुरंग वाला रास्ता है, पहरेदार गहरी नींद में हैं आदि।

श्लोक (9)- न चासुद्धतेनार्थेन प्रवेशयितुं जनमावर्तयेयुर्दोषात्।।

अर्थ- अगर महल में आने का या जाने का रास्ता आसान न हो या खतरों वाला हो तो रानी के महल के भीतर किसी पुरुष को प्रवेश नहीं कराना चाहिए क्योंकि इससे उस पर किसी प्रकार की विपत्ति आ सकती है।

श्लोक (10)- नागरकस्तु सुप्राषमप्यन्तः पुरमपायभूयिष्ठत्वात्र प्रविशेदिति वात्स्यायनः।।

अर्थ- आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक महल में प्रवेश करनें में चाहे किसी प्रकार का खतरा न हो या वहां जाना बहुत आसान हो फिर भी नागरक को वहां पर बिल्कुल नहीं जाना चाहिए क्योंकि यह बहुत ज्यादा खतरा मोल लेने का काम है।

श्लोक (11)- सापसारं तु प्रमदनावगाढं विभक्तदीर्घकक्ष्यमल्पप्रमत्तरक्षकं प्रोषितराजकं कारणानि समीक्ष्य बहुश आहूयमानोऽर्थबुद्धया कक्ष्याप्रवेशं च दृष्टवा ताभिरेव विहितोपायः प्रविशेत्।।

अर्थ- अगर नागरक को रानी के महल में जाना ही हो तो उसे पहले पता कर लेना चाहिए कि उस महल में भागने का कोई रास्ता है या नहीं, महल के साथ बड़ा सा जंगल तो है न, राजा महल में तो नहीं है, पहरेदार गहरी नींद में है या आपस में बात करने में मशरूफ है। इनके अलावा महल में प्रवेश कराने वाली रानी की सहेली या दासी साथ में ही होनी चाहिए।

श्लोक (12)- शक्तिविषये च प्रतिदिनं निष्क्रामेत्।।

अर्थ- अगर नागरक को महल में प्रवेश कराने की सुविधा मिलती है तो उसे वहां पर रोजाना आना-जाना चाहिए।

श्लोक (13)- बहिश्च रक्षिभिरन्यदेव कारणमपदिश्य संसृज्येत।।

अर्थ- महल में आने-जाने वाले नागरक को बातों ही बातों में महल के पहरेदारों से दोस्ती कर लेनी चाहिए।

श्लोक (14)- अन्तश्चारिण्यां च परिचारिकायां विदितार्थायां सक्त मात्यानं रूपयेत्। तदलाभाच्च शोकमन्तः प्रवेशिनीमिश्च दूतीकल्पं सकलामचरेत्।।

अर्थ- महल में आने-जाने वाली किसी दासी आदि को देखकर अगर नागरक को यह महसूस होता है कि यह मुझपर फिदा है तो उसे अपने झांसे में लेने की कोशिश नागरक को करनी चाहिए, उसपर नागरक को झूठा प्यार जताना चाहिए, अगर वह कुछ समय तक नहीं मिलती हो नागरक को ऐसा दिखाना चाहिए कि वह उसके गम में कितना परेशान है। नागरक इसी तरीके को अपनाकर महल की दूसरी दासियों आदि को भी अपने झांसे में लेकर उनसे दूतीपन का काम ले सकता है।

श्लोक (15)- राजप्रणिधींश्च वुध्येत।।

अर्थ- नागरक को अपनी सुरक्षा के मद्देनजर राजमहल में रह रहे राजा के गुप्तचरों को पहचान लेना चाहिए।

श्लोक (16)- दूत्यास्त्वसंचारे यत्र गृहीताकारायाः प्रयोज्याया दर्शनयोगस्तत्रावस्थानम्।।

अर्थ- अगर दूती जा नहीं सकती तथा स्वीकृति सूचक संकेत कर देती है तो नागरक को ऐसी जगह खड़ा होना चाहिए जहां पर दूर से दिखाई पड़ता हो। अगर उसकी आंखें दूती के साथ नहीं मिलती तो उसका वहां पर बेकार में खड़ा होना व्यर्थ है।

श्लोक (17)- तस्मित्रापि तु रक्षिषु परिचारिकाव्यपदेशः।।

अर्थ- उसी स्थान पर खड़े रहने से जिन पहरेदारों के साथ नागरक की दोस्ती है उन्हें उसी दूती को देखने का बहाना कराना चाहिए।

श्लोक (18)- चक्षुरन्धन्त्यामिंगिताकारनिवेदनम्।।

अर्थ- अगर चाहने वाली दासी आदि नागरक पर बार-बार नजर गड़ाता है तो नागरक को भी अपने भावों आदि को उसे दिखाना चाहिए।

श्लोक (19)- यत्र संपातोऽस्यास्तत्र चित्रकर्मणस्तुद्यक्तस्य द्यर्थानां गीतवस्तुकानां क्रीडनकानां कृतचिह्वानामापीनकाना (कस्य) मंगलीयक्सय च निधानम्।।

अर्थ- जिस रानी के पास नागरक जाता है उसकी दासी की नजर जिस जगह पर पड़े उस जगह पर नागरक को चित्र बनाने चाहिए। ऐसे गीत, श्लोक आदि लिखने चाहिए जो किसी प्रेमिका पर उसके प्रेमी के प्यार को जाहिर करते हैं। इसके अलावा अपने नाखून और दांत लगी हुई गेंद, गुड़िया जैसे खिलौनों को अपने नाम की अंगूठी के साथ रख देना चाहिए।

श्लोक (20)- प्रत्युत्तर तया दत्तं प्रपश्येत्। ततः प्रवेशने यतेत।।

अर्थ- रानी की उस दासी के द्वारा दिए गए जवाब को देखने के बाद ही नागरक को महल के अंदर प्रवेश करना चाहिए।

श्लोक (21)- यत्र चास्या नियतं गमनमिति विद्यात्तत्र प्रच्छत्रस्य प्रागेवावस्थानम्।।

अर्थ- रानी की दासी जिस स्थान पर ज्यादा चक्कर लगाती हो नागरक को वहां पर छिपकर बैठ जाना चाहिए।

श्लोक (22)- रक्षि पुरुषरूपो वा तदनुज्ञातवेलायां प्रविशेत्।।

अर्थ- नहीं तो नागरक को पहरेदार आदि का भेष बनाकर महल में घुस जाना चाहिए।

श्लोक (23)- आस्तरणप्रावरणवेष्यितस्य वा तदनज्ञातवेलायां प्रविशेत्।।

अर्थ- या फिर नागरक को महल में ले जाने वाले सामानों के बीच में छुपकर महल में चला जाना चाहिए।

श्लोक (24)- तत्रैतद्धवति-

द्रव्यामामपि निहरि पानकानां प्रवेशने। आपानकोत्सवार्थेऽपि चेटिकानां च संभ्रमे।। व्यत्नासे वेश्मनां चैव रक्षिणां च विपर्यये। उद्यानयात्रागमने यात्रातश्च प्रवेशने।। दीर्घकालोदयां यात्रां प्रोषिते चापि राजनि। प्रवेशनं भवेत्प्रायो यूनां निष्क्रमणं।।

अर्थ- महल में घुसने के और बाहर निकलने के उपाय- महल में ले जाने वाले सामान की गाड़ी में छुपकर, शराब आदि की महफिल में आते-जाते हुए लोगों के साथ महल में घुस जाएं और उनके जाते समय भी उनके साथ ही निकल जाएं। राजमहल की दासियां जब किसी काम को करने के लिए भागदौड़ कर रही हो, पहरेदारों को बदलते समय, राजा के कहीं शिकार या लंबी यात्रा पर जाने के बाद। ऐसे मौकों को तलाशते नागरक को जब यह मौके मिलें तो उसे इनका फायदा उठाना चाहिए।

श्लोक (25)- तत्र राजकुलचारिण्य एव लक्षण्यान्पुरुषानन्तःपुरं प्रवेशयन्ति नातिसुरक्षत्वादा परान्तिकानाम्।।

अर्थ- अपरान्तक देश की रानियां खूबसूरत और संभोग क्रिया में निपुण पुरुषों को अपने महलों में प्रवेश करा लेती थी क्योंकि वहां पर ज्यादा पहरेदार नहीं होते थे।

श्लोक (26)- क्षत्रियसंज्ञकैरन्तः पुररक्षिभिरेवार्थ साधयन्तयाभीरकाणाम्।।

अर्थ- आभीर राजा के महल में आने-जाने वाली रानियां महल के क्षत्रिय रक्षकों को अपने जाल में फंसाकर अपने शयनकक्ष में ले जाती है।

श्लोक (27)- स्वैरेव पुत्रैरन्तःपुराणि कामचारैजर्ननीवर्जमुपयुज्यन्ते वैदर्भकाणाम्।।

अर्थ- विदर्भराज की रानियां सिर्फ अपने पेट से पैदा हुए पुत्र को छोड़कर किसी से भी संभोग क्रिया कर लेती हैं।

श्लोक (28)- तथा प्रवेशिभिरेव ज्ञातिसंबन्धिभिर्नान्यैरुपयुज्यन्ते स्त्रैराजकानाम्।।

अर्थ- स्त्री राज्य की रानियां केवल अपने जाति के पुरुषों के साथ ही संभोग क्रिया कराती है दूसरों से नहीं।

श्लोक (29)- ब्राह्मणैर्मित्रैर्भृत्यैसचेटैश्च गौडानाम्।।

अर्थ- गौड़ देश की रानियां अपने नौकर, ब्राह्मण, दोस्त तथा चेटों के साथ भी संभोग क्रिया करा लेती हैं।

श्लोक (30)- अर्थेन रक्षिणमुपगुह्य साहसिकाः संहताः प्रविशन्ति हैमवतानाम्।।

अर्थ- हिमालय के दून के राजाओं की रानियां यहां के बहादुर युवक पहरेदारों को धन का लालच देकर महल में प्रवेश कराती हैं।

श्लोक (31)- परिस्पन्दाः कर्मकराश्चतान्तः पुरेष्वनिषिद्धा अन्येऽपि तद्रूपाश्च सैन्धवानाम्।।

अर्थ- सिंधु देश के महलों में जो नौकर या नागरिक प्रवेश कर सकते हैं उनके साथ वहां की रानियां संभोग क्रिया करती हैं।

श्लोक (32)- पुष्पदाननियोगात्रगरब्राह्मणा राजविदिमन्तःपुराणि गच्छति। पटान्तरितश्चैषामालापः। तेन प्रसंगेन व्यतिकरो भवति वंगांग्लिंगकानाम्।।

अर्थ- अंग, बंग तथा कलिंग देश में महलों में जब ब्राह्मण पूजा-पाठ के लिए आते हैं तो तब रानियां उनसे पर्दे में ही बात करती है और इसी बातचीत में वह उसे संभोग के लिए राजी कर लेती हैं।

श्लोक (33)- सहंत्य नवदशेत्येकैकं युवानं प्रच्छादयन्ति प्राच्यानामिति। एवं परस्त्रियः प्रकुर्वीत्। इत्यन्तःपुरिकावृत्तम्।।

अर्थ- प्राच्य देश की 8-10 रानियां इकट्ठे होकर किसी खूबसूरत और संभोगकला में निपुण युवकों को अपने पास रखती है।

श्लोक (34)- एभ्य एवं च कारणेभ्यः स्वदारान् रक्षेत्।।

अर्थ- इन्ही कारणों की वजह से अपनी पत्नियों की अच्छी तरह से देखरेख करनी चाहिए।

श्लोक (35)- कामोपधाशुद्धान्रक्षिणोऽन्तःपुरे स्थापयेदित्याचार्याः।।

अर्थ- आचार्यों के मुताबिक पूरी तरह से काम-कला में निपुण लोगों को ही रानी के महल और राजमहल का रक्षक बनाना चाहिए।

श्लोक (36)- ते दि भयेन चार्थेन चान्यं प्रयोजयेयुस्तस्मात्कामभयार्थोपधाशुद्धानिति गोणिकापुत्रः।।

अर्थ- गोणिकापुत्र के मुताबिक महल के पहरेदार के वफादार होते हुए भी वह धन के लालच में या किसी तरह के डर के कारण किसी शख्स को रानी के महल में प्रवेश करा दे तो क्या हो। इसलिए उनके मुताबिक सिर्फ काम-कला की परीक्षा न लेकर उसके डर की परीक्षा भी करनी चाहिए।

श्लोक (37)- अद्रोहो धर्मस्तमपि भयाञ्ञह्यादतो धर्मभयोपधाशुद्धानिति वात्स्यायनः।।

अर्थ- वातस्यायनः के अनुसार अपने स्वामी के खिलाफ विद्रोह नहीं करना धर्म है लेकिन उसे भी डर से छुड़ाया जा सकता है। इसी तरह से जो बहादुर तथा धर्मात्मा हों उन्ही को रानी के महल का पहरेदार बनाना चाहिए।

श्लोक (38)- परवाक्याबिदायिनीभिश्च गूढाकाराभिः प्रमदाभिरात्मदारानुपदध्याच्छौचाशौ-चपरिज्ञानार्थमिति बाभ्रवीयाः।।

अर्थ- बाभ्रवीय आचार्यों के मुताबिक दूसरे लोगों के द्वारा कही गई बातों का बहाना बनाकर कहने वाली तथा अपने मन की बातों को छिपाने वाली स्त्रियों से अपनी रानी महल की रानियों के व्यवहार और पवित्रता आदि का पता लगवा लेना चाहिए।

श्लोक (39)- दुष्टानां युवतिषु सिद्धत्वात्रकस्माददुष्टदूषणमाचरेदिति वात्स्यायनः।।

अर्थ- वातस्यायन के मुताबिक बुरे लोग तो स्त्रियों को फंसाते हैं इसलिए सदाचारियों को बिना वजह ही बदनाम नहीं करना चाहिए।

श्लोक (40)- तान्याह-

अतिगोष्ठी निरंगशत्वं भर्तुः स्वैरता पुरुषैः सहानियन्त्रणता प्रवासेऽवस्थानं विदेशे निवासः स्ववृत्युपघातः स्व्रैऱिणीसंसर्गः पत्युरीर्ष्यालु चेति स्त्रीणां विनाशकारणानि।

अर्थ- बहुत ज्यादे गप्पे मारना, नियमों को तोड़ना, स्वेच्छारिता, पुरुषों के साथ निसंकोच साफ भाव से रहना, बाते करना, पति के घर से बाहर चले जाने पर अकेले रहना या बुरी स्त्रियों के साथ मिल जाने से स्त्रियां बुरी बन जाती हैं।

श्लोक (41)- संदृश्य शास्त्रतो योगान्पारदारिकलक्षितान्।।

अर्थ- पराई स्त्रियों को किस प्रकार से फंसाया जाता है उनके सभी तरीकों को इस बताए गए प्रकरण के अनुसार पढ़कर कोई भी पुरुष अपनी पत्नी के बारे में धोखा नहीं खा सकता है।

श्लोक (42)- पाक्षिकत्वात्प्रयोगाणामपायानां च दर्शनात्। धर्मार्थयोश्च वैलोम्यात्राचरेत्पारदारिकम्।।

अर्थ- इस प्रकरण में यह बताया गया है कि पराई स्त्री से संबंध दोनों घरों को बर्बाद कर देते हैं। इसलिए किसी भी समझदार पुरुष को इस बुरे काम में लीन होने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।

श्लोक (43)- तदेतद्दारगुप्तयर्थमारब्धं श्रेयसे नृणाम्। प्रजानां दूषणायैव न विज्ञेयोऽस्य संविधिः।।

अर्थ- स्त्रियों के सतीत्व की परीक्षा करने के लिए और पुरुषों की भलाई के लिए ही इस प्रकरण को पेश किया जा रहा है, इसलिए इसमें बताए गए उपायों का प्रयोग किसी को दूषित करने में न किया जाए।

पिछले प्रकरण में पराई स्त्री से संभोग करने वाले लोगों की कोशिशों, दूतियों की भयंकर साजिश, राजाओं की स्वेच्छाचारिता, रानिवास की रानियों की कपट-लीलाओं का जो वर्णन किया गया है, उसका अर्थ यही है कि इन सब रहस्यों को जानकर, पढ़कर, महसूस करके लोगों को धोखे में नहीं फंसना चाहिए। उनका फर्ज है कि अपनी पत्नियों के चरित्र की सुरक्षा सावधान रहकर करते रहना चाहिए।

 इति श्रीवात्स्यायनीये कामसूत्रे पारदारिके पञ्ञमेऽधिकरणे आन्तःपुरिकं दाररक्षितकं षष्ठोध्यायः।
षष्ठम अध्याय : अन्तः पुरिका वृत प्रकरण षष्ठम अध्याय : अन्तः पुरिका वृत प्रकरण Reviewed by Admin on 11:12 AM Rating: 5

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